________________ . शुभचन्द्र के उपदेश से भर्तृहरि भी दीक्षित हो गया। भर्तृहरि को मुनिमार्ग में दृढ़ करने और सच्चे योग का ज्ञान कराने के लिए शुभचन्द्र ने योगप्रदीप अथवा ज्ञानार्णव की रचना की। ___आचार्य शुभचन्द्र के जीवनवृत्त के विषय में उपर्युक्त कथानक के अतिरिक्त और कोई ऐतिहासिक सामग्री उपलब्ध नहीं होती / कथा का उत्तरार्ध कालिदास, वररुचि, धनंजय और मानतुंगसूरि की समकालीनता को भी दिखलाता है। किन्तु इन सबकी प्राचीनता एवं तथ्यात्मकता का परीक्षण होना अभी अवशिष्ट है। उपर्युक्त कथा से इतना तो जाना ही जाता है कि भर्तृहरि, भोज, शुभचन्द्र और मुंज समकालीन पुरुष थे। इसके सिवाय भक्तामर स्तोत्र के बनने की एक कथा से, जिसका कि इससे घनिष्ठ सम्बन्ध है, यह भी प्रकट होता है कि मानतुंग, कालिदास, वररुचि और धनंजय भी शुभचन्द्र के समसामयिक हैं। किन्तु इनकी तथ्यता पर अवश्य सन्देहात्मक चिह्न लगा हुआ है। शोध की दृष्टि से महत्त्व - चिन्तन का वैविध्य कोई आज की बात नहीं है वह तो शाश्वत तत्त्व है जो अनादि काल से चली आ रहा है। चिन्तनधारा के विश्लेषण पर जब उतरें तो पाएँगे कि धर्म, दर्शन, अध्यात्म का विकास उसके अन्तर्गत होने वाले सात्त्विक मानवीय उद्देलनों का परिणाम है। चूँकि आज व्यक्ति भौतिकता की आपाधापी में अपने मन की सात्त्विक वृत्तियों को - भूलता जा रहा है। इसलिए शान्ति और सुख की लकीरें इनके हृदय में धूमिल हो रही हैं। तब आवश्यकता होती है कि किसी ऐसे मार्गदर्शन की जो दिशा दे मानव को उसकी अपनी मंजिल प्राप्ति की। 'ज्ञानार्णव' ग्रन्थ में आचार्य शुभचन्द्र ने मानव मन की अन्त:वृत्तियों को विश्लेषित किया है। क्योंकि अन्तर्दृष्टि तब तक पैदा नहीं हो सकती, जब तक कि हम सम्बद्ध मामले के तथ्य, व्याघातों और बुद्धि से उद्भूत विचारों से परिचित न हो। अन्तर्ज्ञान के सफल उपयोग के लिए बहुत बड़ी संख्या में तथ्यों और नियमों का पहले से अध्ययन करना और उन्हें आत्मसात् करना पड़ता है। उन नियमों का अध्ययन अर्थात् जानकारी प्राप्त करके ही व्यक्ति आत्मबोध द्वारा सुख और शान्ति को प्राप्त कर राकते हैं। उन नियमों की जानकारी के लिये 'ज्ञानार्णव'ग्रन्थ बहुत सहायक है। प्राचीन समय से ही योग, ध्यान विषयक ग्रन्थों की रचना हुई है। उन रचनाओं का अपना अलग-अलग महत्त्व भी है। किन्तु ज्ञानार्णत शोध की दृष्टि से अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। क्योंकि "सन्तों की भाषा जैसी राहज और सर्वजनबोधगम्य है, वैसी ही 1. तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा, भाग 3, पृ. 148-50. 2. ज्ञानार्णव (अगास), प्रस्तावना पृ. 12. 49