________________ भर्तृहरि सम्बन्धी दो-एक कथाग्रन्थ हैं, उनसे जाना जाता है कि भर्तृहरि विक्रम के ज्येष्ठ भ्राता थे। उन्होंने बहुत समय तक राज्य किया है / एक बार अपनी प्रियतमा स्त्री का दुश्चरित्र देखकर वे संसार से विरक्त होकर योगी हो गए थे। स्त्री के विषय में उस समय उन्होंने यह श्लोक रचा था - यां चिन्तयामि सततं मयि सा विरक्ता, साप्यन्यमिच्छति जनं स जनोऽन्य सक्तः। अस्मत्कृते च परितुष्यति काचिदन्या, धिक तां च तं च मदनं च इमां च मां च / / ' यद्यपि इतिहास में विक्रम नाम के कई राजा हो गए हैं, उसी प्रकार भर्तृहरिभी कई हो गए हैं। एक भर्तृहरिको वाक्यपदीय तथा राहतकाव्य का कर्ता गिना जाता है। किसी के मत में शतकत्रय और वाक्यपदीय दोनों का कर्त्ता एक है। इसिंग नाम का एक चीनीयात्री भारत में ईसा कीसातवीं सदी में आया था। उसने भर्तृहरि की मृत्यु सन् 650 ईस्वी में लिखी है। इन सब बातों से यह कुछ भी निश्चय नहीं हो सकता कि शुभचन्द्राचार्य के भाई भर्तृहरि उपर्युक्त दोनों-तीनों में से कौन हैं। अथवा कोई पृथक् ही हैं। विद्वान् ग्रन्थकार विद्यावाचस्पति ने तत्त्वबिन्दु ग्रन्थ में भर्तृहरि को धर्मबाह्य लिखा है। और उपरिलिखित भर्तृहरि वैदिकधर्म के अनुयायी माने जाते हैं। इसलिए आश्चर्य नहीं कि इस धर्मबाह्य से जैन का ही तात्पर्य हो और शुभचन्द्र के भाई भर्तृहरि को ही यह धर्मबाह्य संज्ञा दी गई हो। क्योंकि उन्होंने जैनधर्म की दीक्षा ले ली थी। शतकत्रय के अनेक श्लोक ऐसे हैं, जिनमें जैनधर्म के अभिप्राय स्पष्ट व्यक्त होते हैं। इस सन्दर्भ पर यह कह देना आवश्यक होगा कि आचार्य शुभचन्द्र के ज्ञानार्णव और भर्तृहरि के वैराग्यशतक के अनेक प्रसंग भाव और शब्द की दृष्टि से साम्य रखते हैं किन्तु इन दोनों के बीच में जो ऐतिहासिक अन्तर ऊपर दिखाया गया है, उसके अनुसार विश्लेषण करने पर दोनों की समीपता किञ्चित् भी नहीं सध पाती / यद्यपि भर्तृहरि का झुकाव भी त्याग और वैराग्य की ओर दिखाई देता है, जिससे दोनों की रचनाओं में शाब्दिक और भावात्मक समानता है, लेकिन आज भी दोनों की कालसीमा अनिश्चित ही है। इसी प्रकार आचार्य मानतुंग ने भक्तामर स्तोत्र की रचना की। जिसके सम्बन्ध में एक कथा प्रचलित है। उसके अनुसार आचार्य शुभचन्द्र का मानतुंग, कालिदास आदि के समसामयिक होना प्रकट होता है। किन्तु कालिदास के साथ शुभचन्द की समसामयिकता मात्र इतनी ही सध सकती है कि भोज के समय में कालिदास नामक कोई विशिष्ट 1. वैराग्यशतक 2. 2. ज्ञानार्णव, (अगास) प्रस्तावना पृ. 14-5. 45