________________ कवि थे। साथ ही, यह नाम अलंकारोपेत उपाधि रूप में प्रयुक्त होने कारण भी भ्रमकारक बन गया है। इस प्रकार हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि आचार्य शुभचन्द्र का समय 10-11 वीं ईस्वी शताब्दी के मध्य रहा है। उन ऐतिहासिक प्रमाणों के अनुसंधित्सुओं को अब भी प्रतीक्षा है कि इन महान् आचार्यों की समयावधि को यथार्थत: रेखांकित कर सकें। इतिहास के आलोक में आचार्य शुभचन्द इतिहास कभी भी केवल अतीत की घटना मात्र नहीं होता, उनमें भविष्य की संभावनाएं भी बीज रूप में देखी जाती हैं। वर्तमान इन संभावनाओं का ही व्यक्त रूप होता है। आचार्य शुभचन्द्र ने जीवन और जगत् की वास्तविकता को पहचाना था। उनका युगबोध और आत्मबोध दोनों अत्यन्त सूक्ष्म, तत्त्वपूर्ण और विस्तृत था। उन्होंने जो भी. उपदेश दिए हैं वे दूसरों के लिए नहीं अपितु उनके अपने जीवन की सारभूत अनुभूतियाँ हैं। जो उस समय भी उपादेय थी और उनका मूल्य आन भी कम नहीं। पर ऋषि-मुनियों ने संस्कृति के क्षेत्र में अपना अमूल्य योगदान देने के बाबजूद भी कभी नाम की आकांक्षा नहीं की। यही कारण है कि उनके ग्रन्थों व रचना आदि में उनका नाम नहीं मिलता। लोकैषणा से दूर उनके आदर्श मात्र कर्त्तव्यनिर्वाह को ही महत्त्व देते थे। आज जहाँ व्यक्ति मरने के बाद भी जीने के लिए पत्थरों का सहारा लेने बैचेन है। उन्होंने तो जीते जी अपने को बेनाम रखकर जैसे अमरत्व का रस लिया। लोक-कल्याणार्थ उनकी सेवाएँ चिरन्तन हैं, इसलिए आज जब इतिहास के परिप्रेक्ष्य में उनका अवलोकन करना चाहते हैं तब अनेक प्रान्तियाँ उत्पन्न होती हैं। तब ऐसे में रचनाकार का समय निर्धारण, सामाजिक और देशीय स्थिति में परिचय प्राप्त करना दुष्कर कार्य होता है। जीवन-परिचय - श्रीविश्वभूषण आचार्य द्वारा निर्मित भक्तामर चरित्र नामक संस्कृत कथा ग्रन्थ में आचार्य शुभचन्द्र और भर्तृहरि के विषय में एक कथा दी गई है, जो अविकल निम्नानुसार है "आचार्य शुभचन्द्र तथा भर्तृहरि उज्जयिनी के राजा सिन्धुल के पुत्र थे और सिन्धुल के पैदा होने के पहले उनके पिता सिंह ने मुंज को एक मूंज के खेत में पड़े हुए पाकर उसे पाल लिया था। सिंह को बहुत दिनों तक सन्तान न हुई, जिससे वह चिन्तित रहने लगा। एक दिन मन्त्री ने राजा की चिन्ता को अवगत कर उसे धर्माराधन करने का परामर्श दिया। राजा सावधान होकर धर्मकृत्यों को सम्पन्न करने लगा। एक दिन वह रानी और मन्त्रियों के साथ वन-क्रीड़ा के लिए गया और वहाँ गूंज के खेत में पड़े हुए एक बालक को पाया। उस बालक को देखते ही राजा के हृदय में प्रेम का 46