________________ उनका माम दिया है। श्री प्रेमी जी का अनुमान है कि आर्यिका जाहिणी ने जिस लेखक से उक्त प्रति लिखाई होगी उसका नाम और समय भी अन्त में अवश्य दिया गया होगा। परन्तु दूसरे लेखक ने उक्त पहली प्रति का वह अंश अनावश्यक समझकर छोड़ दिया होगा और अपना नाम एवं समय अन्त में जोड़ दिया होगा। इस दसरी प्रति के लेखक पण्डित केसरी के पुत्र बीसल हैं और उन्होंने गोमण्डल में सहस्रकीर्ति के लिए इसे लिखा था, जबकि पहली प्रति नृपुरी में शुभचन्द्र योगी के लिए लिखाकर दी गई थी। दूसरी प्रति का लेखनकाल वि. 1284 है, तब पहली प्रति का इससे पहले लेखनकाल रहा होगा। श्री प्रेमी जी ने यह भी निष्कर्ष निकाला है कि प्रति का लेखन स्थान नृपुरी ग्वालियर का नरवर सम्भव है / नृपुर से नरपुर, नरपुर से नरउर और नरउर से नरवर का होना सम्भव है। अत: पाटण की इस प्रति के आधार पर ज्ञानार्णव की रचना वि. सं. 1284 के पूर्व अवश्य हुई है। अतएव सोमदेव के पश्चात् और हेमचन्द्र के पूर्व शुभचन्द्र का समय होना चाहिए। इस मत का समर्थन डॉ. हीरालाल जैन भी स्पष्ट रूप से करते हैं - 'शुभचन्द्र और हेमचन्द्र के काल की दृष्टि से पूर्वापरत्व और एक पर दूसरे की छाप इतनी सुस्पष्ट है कि हेमचन्द्र को शुभचन्द्र का इस विषय में ऋणी न मानने का कोई अवकाश ही नहीं।' . मुंज और शुभचन्द्र - परमारवंशावतंस महाराज मुंजराज का समय शोधने में हमको कुछ भी कठिनाई नहीं होती। क्योंकि धर्मपरीक्षा श्रावकाचार, सुभाषितरत्नसंदोह आदि ग्रन्थों के सुप्रसिद्ध रचयिता आचार्य अमितगति उन्हीं के समय में हुए हैं। सुभाषितरत्नसंदोह की प्रशस्ति में लिखा है - - अर्थात् विक्रम राजा के स्वर्गगमन के 1050 वर्ष के पश्चात अर्थात् विक्रम संवत् 1050 (ईस्वी सन् 994) में पौष शुक्ला पंचमी को मुंजराजा की पृथ्वी पर विदानों के लिए यह पवित्र ग्रन्थ बनाया गया था, इसलिए मुंज का राज्यकाल विक्रम संवत् 1050 मान लेने में किसी प्रकार का संदेह नहीं रह सकता। इसके सिवाय श्रीमेरुतुंगसूरि ने भी अपने प्रबन्धचिन्तामणि ग्रन्थ में, जो कि विक्रम संवत् 1361 (ईस्वी सन् 1305) में रचा गया है, इस समय को शंकारहित कर दिया है। प्रबन्धचिन्तामणि में लिखा है - विक्रमादासरादष्टमुनिव्योमेन्दसम्मिते। वर्षे मुअपदे भोजभूप पट्टे निवेशितः / / अर्थात् वि. सं. 1078 (ई. सन् 1022) में राजा मुंज के सिंहासन पर महाराज 1. तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा, भाग 3, पृ. 152-3. 2. भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान, पृ. 122. 43