________________ है वह ज्ञानार्णव से पूर्व अन्य किसी प्राचीन ग्रन्थ में भी रहा हो। आचार्य प्रभाचन्द्र (11-12 वीं शती) ने रत्नकरण्डक श्रावकाचार के श्लोक 524 की टीका में क्षेत्रं वास्तु धनं' आदि एक श्लोक को उदधृत किया है। यह श्लोक 'वास्तुक्षेत्रं' जैसे कुछ साधारण शब्दभेद के साथ ज्ञानार्णव में 822 नम्बर पर पाया जाता है। इन प्रमाणों से आचार्य शुभचन्द्र सोमदेवसूरि और आचार्य प्रभाचन्द्र के मध्यवर्ती सिद्ध होते हैं। सोमदेवसूरि के परवर्ती तथा 11 वीं शती में ही आचार्य शुभचन्द्र के काल को अनुमानित करने वाले एवं जैन इतिहास पर प्रामाणिक एवं परिपूर्ण सामग्री प्रस्तुत करने वाले डॉ नेमिचन्द्र शास्त्री ज्योतिषाचार्य का निम्न सन्दर्भ भी दृष्टव्य है। जो कि उन्होंने ज्ञानार्णव की दूसरी प्रति एवं पं. नाथूराम प्रेमी के मत के आधार पर व्यक्त किया है - "नृपुरी में अरहन्तं भगवान् के चरणकमलों का भ्रमर, सज्जनों के हृदय को आनन्द देने वाला, माथुर संघ रुप समुद्र को उल्लसित करने वाला भव्यात्मा श्रीनेमचन्द्रनामक परमश्रावक हुआ, जिसकी पत्नी का नाम स्वर्णा था, जो अखिल विज्ञान-कलाओं में कुशल सती, पातिव्रत्यादि गुणों से भूषित और परम शीलवती थी। धर्म, अर्थ और काम को सेवन करने वाले इन दोनों के जाहिणी नामक पुत्री हुई, जो अपने कुल रुप कुमुदवन की चन्द्ररेखा, निज वंश की वैजयन्ती और सर्व लक्षणों से सुशोभित थी। ___ इसके पश्चात् इस दम्पत्ति के राम और लक्ष्मण के समान गोकर्ण और श्रीचन्द्र नाम दो सुन्दर गुणी और भव्य पुत्र उत्पन्न हुए। अनन्तर नेमिचन्द्र की वह पुत्री जाहिणी संसार की विचित्रता और नरजन्म की निष्फलता को जानकर आत्मशुद्धि के लिए प्रेरित हुई। उसने मुनियों के चरणों के निकट आर्यिका के व्रत ग्रहण कर लिए और मन की शुद्धि से अखण्डित रत्नत्रय को स्वीकार किया / उस विरक्ता ने युवावस्था में ऐसा कठिन तपश्चरण किया, जिससे सभी उसकी प्रशंसा करने लगे। इस जाहिणी.आर्यिका ने कर्मों के क्षय के लिए यह ज्ञानार्णव नामक पुस्तक ध्यान-अध्ययनशाली, तप और शास्त्र के निधान. तत्त्वों के ज्ञाता और रागादि रिपओं के पराजित करने वाले मल्ल जैसे शभचन्द्र योगी को लिखाकर दी। वैशाख सुदी दशमी शुक्रवार वि. सं. 1284 को गोमण्डल (काठियावाड़) में दिगम्बर राजकुल (भट्टारक) सहस्रकीर्ति के लिए पं. केसरी के पुत्र बीसन ने एक प्रशस्ति लिखी। प्रशस्ति के अध्ययन से ऐसा ज्ञात होता है कि इस ग्रन्थ में लिपिकर्ताओं की दो प्रशस्तियाँ हैं। प्रथम प्रशस्ति में तो लिपिकर्ता का नाम और लिपि करने का समय नहीं दिया है। केवल लिपि कराने वाली जाहिणी का परिचय और जिन्हें प्रति भेंट की गई है, 1. ज्ञानार्णव, (सोलापुर) प्रस्तावना, पृ. 17-9. 42