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________________ समय में जो भी योगविषयक साहित्य प्रचलित रहा है उसका उन्होंने गम्भीरतापूर्ण अध्ययन किया है तथा अपनी इस कृति में उसका समुचित उपयोग भी किया है। इसके उदाहरण प्राणायाम, पिण्डस्थ, पदस्थ आदि ध्यानों के विस्तृत वर्णन में पाए जाते हैं। ग्रन्थकार के समय का विचार करने के लिए यह देखना होगा कि उन्होंने इस ग्रन्थ की रचना में पूर्ववर्ती किन ग्रन्थों का आश्रय लिया है। प्रस्तुत ग्रन्थ की रचना में उन्होंने आचार्य पूज्यपाद (वि. 5-6 वीं शती) विरचित समाधितन्त्र व इष्टोपदेश, भट्टाकलङ्कदेव (8वीं शती) विरचित तत्त्वार्थवार्तिक, आचार्य जिनसेन (9 वीं शती) विरचित आदिपुराण (21 वाँ पर्व), अमृतचन्द्रसूरि (10 वीं शती) विरचित पुरुषार्थसिद्धयुपाय, रामसेनाचार्य (10 वीं शती) विरचित तत्त्वानुशासन, सोमदेवसूरि (11 वीं शती) विरचित उपासकाध्ययन तथा आचार्य अमितगति (प्रथम)(10-11 वीं शती) विरचित योगसारप्राभृत आदि ग्रन्थों का आश्रय लिया है। इनके अतिरिक्त अमितगति श्रावकाचार के कर्ता आचार्य अमितगति (द्वितीय) भी यदि आचार्य शुभचन्द्र के पूर्ववर्ती या समकालीन हो सकते हैं तो सम्भव है उनके श्रावकाचार का भी उन्होंने प्रस्तुत ग्रन्थ की रचना में उपयोग किया हो। इसका कारण यह है कि ज्ञानार्णव में जिन पिण्डस्थ, पदस्थ आदि ध्यानों का विस्तृत वर्णन किया गया है। उनका विशेष वर्णन अमितगति श्रावकाचार के 15वें परिच्छेद में उपलब्ध होता है। पर वर्णनशैली दोनों की कुछ भिन्न प्रतीत होती है। भट्टारक शुभचन्द्र के परवर्ती पं. आशाधर (13 वीं शती) ने अपनी भगवती आराधना की गाथा 1887 की टीका में उक्तं च ज्ञानार्णवे विस्तरेण' ऐसा कहकर ज्ञानार्णव के क्रम से 2186-7, 2189-91, 2193-4 श्लोकों को उद्धृत किया है। पं. आशाधर के पूर्ववर्ती पद्मप्रभ मलधारीदेव (13 वीं शती) ने नियमसार गाथा 39 की टीका में तथा चोक्तं' कहकर निम्न पद्य को उद्धृत किया है जो ज्ञानार्णव में 2144 संख्या पर उपलब्ध है - निष्क्रिय करणातीतं ध्यान-धारणवर्जितम / अन्तर्मुखं च यच्चित्तं तच्छुक्लमिति पठ्यते / / नियमसार की टीका में धारण' के स्थान पर 'ध्येय' और 'इति पठ्यते' के स्थान पर 'योगिनो विदुः' इतना पाठ भेद है। पर यह श्लोक स्वयं ज्ञानार्णवकार के व्दारा रचा गया नहीं दिखता। इसका कारण यह है कि उसके पूर्व में ज्ञानार्णव की अन्य प्रतियों में यद्यपि 'उक्तं च' ऐसी सूचना नहीं उपलब्ध होती है, पर उसकी प्राचीनतम पाटण प्रति में 'उक्तं च' ऐसा निर्देश उसके पूर्व में किया गया है। इससे यह निश्चित नहीं कहा जा सकता कि उक्त श्लोक ज्ञानार्णव से ही नियमसार की उक्त टीका में उद्धृत किया गया है। सम्भव 1. ज्ञानार्णव, प्रस्तावना, पृ.17.
SR No.004283
Book TitleBhartiya Yog Parampara aur Gnanarnav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendra Jain
PublisherDigambar Jain Trishala Mahila Mandal
Publication Year2004
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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