________________ हिन्दी टीकाओं में लब्धिविनयगणि की टीका सर्वाधिक प्राचीन है, जो कि विक्रम संवत् 1728 में हुई थी। यह पद्यमय है। दूसरी हिन्दी टीका पं. जयचन्द छाबड़ा की है। यह वचनिका ढूंढारी भाषा में है। इसका ही हिन्दी रूपान्तरण पं. पन्नालाल बाकलीवाल ने किया है, जो पं. नाथूराम प्रेमी के सम्पादकत्व में प्रकाशित हुई है। ज्ञानार्णव पर देवचन्द जी का राजस्थानी भाषा में पद्यानुवाद उपलब्ध है। जिसका नाम ध्यानदीपिका चौपाई है जो ढालबद्ध है। जिसकी रचना संवत् 1766 वैशाख वदी 13 रविवार को मुल्तान में की गई है।' हिन्दी की अन्य टीकाओं में क्षु. मनोहरलाल जी वर्णी के द्वारा प्रदत्त ज्ञानार्णव प्रवचन 21 भागों में विशद व्याख्या के साथ प्रकाशित हैं। साथ ही साध्वी डॉ. दर्शनलता के द्वारा लिखित 'ज्ञानार्णव : एक समीक्षात्मक अध्ययन' शोधप्रबन्ध भी उपलब्ध है। ज्ञानार्णव पर सुबोध चन्द्रिका नामक पद्यमय रचना भी प्रकाशित हुई है, जिसके रचयिता सागरचन्द्र बड़जात्या हैं। इसका प्रकाशन ग्वालियर से हुआ है। ज्ञानार्णव के प्रथम एवं द्वितीय सर्ग का पद्यानुवाद दिग. मुनि श्री मार्दवसागर जी के दारावी. नि. 2515 में असोज मास की अष्टमी को श्री दिगम्बर जैन सिद्धक्षेत्र, कुण्डलपुर में सम्पन्न किया गया। जिसकी रचना विविध छन्दों में हुई है। यह अभी अप्रकाशित है। आप दिगम्बर जैनाचार्य विद्यासागर जी के शिष्य हैं। इसके अतिरिक्त किसी अन्य टीकाओं की न तो जानकारी है और ना ही कहीं कोई सन्दर्भ उपलब्ध होते हैं। समय निर्धारण - आचार्य शुभचन्द्र का समय निर्धारण करते हुए जैनसिद्धान्त के मर्मज्ञ विद्वान् पं. बालचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री ने अनेक ग्रन्थों के उद्धरण देते हुए उन्हें सोमदेवसूरि से परवर्ती एवं आचार्य प्रभाचन्द्र के पूर्ववर्ती माना है। जैसा कि उनका वक्तव्य है - "प्रस्तुत ग्रन्थ के रचयिता आचार्य शुभचन्द्र ने इस महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ को रचकर अपना कहीं कोई परिचय नहीं दिया। यह उनकी निरभिमानता का द्योतक है। इस अभिप्राय को उन्होंने स्वयं व्यक्त भी कर दिया है। जिसे केवल शिष्टता न समझकर उनकी आन्तरिक भावना ही समझना चाहिए। ग्रन्थ के परिशीलन से यह तो ज्ञात हो ही जाता है कि सिद्धान्त के मर्मज्ञ आचार्य शुभचन्द्र बहुश्रुत विद्वान् एवं प्रतिभासम्पन्न कवि भी रहे हैं। ग्रन्थ की भाषा सरस, सरल व सुबोध है। कविता मधुर व आकर्षक है। ग्रन्थ में जो अनेक विषयों के साथ इतर सम्प्रदायों की भी चर्चा व समीक्षा की गई है उसी से उनकी बहुश्रुतता का पता लग जाता है। उनके 1. ज्ञानार्णव : एक समीक्षात्मक अध्ययन, पृ. 113. 2. जिनवाणी (ध्यान-योग : रूप और दर्शन), पृ. 237. 40