________________ है। इस टीका के कर्ता पं. नयविलास हैं। टीका खण्डान्वय शैली की है। जहाँ टीकाकार ने श्लोकों का पदच्छेद करते हुए उनका अर्थ किया है, वहाँ उसमें टीका-जैसी गहराई या विषय स्पष्टीकारण की बात नहीं है। पं. नयविलास जी आगरा के निवासी थे। आप सुप्रसिद्ध अध्यात्मवेत्ता पं. राजमल्ल के समकालीन विद्वानों में से एक हैं। प्रशस्ति से विदित होता है कि आपने यह टीका साहू टोडर के पुत्र ऋषिदास के अनुरोध पर निर्मित की है। जिसका निर्माण जलालुद्दीन अकबर के काल में हुए कृष्ण नामक क्षत्रिय राजा के समय हुआ। इसी राजा का मंत्री साहू टोडर था। __ जैसा कि पं. नाथूराम प्रेमी ने लिखा है कि 'ज्ञानार्णव की एक दो संस्कृत टीकाएँ सुनी हैं परन्तु अभी तक देखने में नहीं आईं। केवल इसके गद्यभाग की एक छोटी सी टीका श्रीश्रुतसागरसूरिकृत प्राप्त हुई है। इसे डॉ. दर्शनलता ने टीका के रूप में स्वीकार कर लिया है। जैसा कि वे लिखती हैं - .... उस गद्य भाग पर श्रुतसागरसूरि नामक विदान् ने संस्कृत में तत्त्वत्रय प्रकाशिनी नामक टीका की रचना की है।' किन्तु इस सन्दर्भ में कहा जा सकता है कि इसको टीका के बजाय टिप्पण कहना अधिक उचित होगा। यह किञ्चित् अंशमात्र को स्पष्ट करने वाली होने से टिप्पण ही है। इसके कर्ता श्रुतसागरसूरि हैं, जो 16 वीं सदी के विद्वान् हैं। टिप्पण के अन्त से ज्ञात होता है कि इसकी रचना आचार्य सिंहनन्दी के अनुरोध पर तथा गुरु विद्यानन्दी के प्रसाद से सम्पन्न हई। श्रुतसागरसूरि जैनधर्म एवं संस्कृति के मर्मज्ञ विदान थे। उनसे यह अपेक्षा होना उचित थी कि वे ज्ञानार्णव पर सम्पूर्ण टीका की रचना करते / जैसा कि उन्होंने षट्प्राभृत, तत्त्वार्थसूत्र एवं सहस्रनाम आदि पर की है। झालरापाटन राजस्थान के श्री शान्तिनाथा दिगम्बर जैन मंदिर के प्राचीन शास्त्र भण्डार की ग्रन्थ सूची में सिंहनन्दी व्दारा रचित एक अन्य ज्ञानार्णव ग्रन्थ पर संस्कृत टीका उल्लेख प्राप्त हुआ है। अभी यह टीका अन्वेषणीय है। 1. ज्ञानार्णव : एक समीक्षात्मक अध्ययन, पृ. 120. 2. नाम्ना कृष्ण इति प्रसिद्धिरभवत् सत्क्षात्रधर्मोन्नतेस्तन्मन्त्रीश्वर टोडरो गुणयुत: सर्वाधिकारोद्यत:। श्रीमत्तोडरसाहपुत्र निपुण: सद्दानचिन्तामणिः, श्रीमच्छ्र ऋषिदास धर्मनिपुणः प्राप्तोन्नति: स्वश्रिया।। तेनाहं समवाढी वाढिनिपणो न्यायाद्यलीलाहयः। श्रोतुंवृत्तिमत: परं सुविषयां ज्ञानार्णवस्य स्फुटम् / / पीठिका, 6/7. 3. ज्ञानार्णव, प्रस्तावना, पृ. 18. 4. ज्ञानार्णव : एक समीक्षात्मक अध्ययन, पृ. 112. 39