________________ इस सन्दर्भ में निम्न अभिप्राय ध्यान देने योग्य है - 'ग्रन्थकार ने भावात्मक तत्त्वों की मूर्तरूप में अभिव्यंजना देने हेतु जिस भाषा और शैली का प्रयोग किया है उसमें रूपक तथा उपमा जैसे अलङ्कार स्वयं ही आ उपस्थित होते हैं। रूपकों का तो इस ग्रन्थ में विस्तृत, सुन्दर और मनोरम प्रयोग है जिसे देखकर हम उन्हें रूपकों का सम्राट् कहें तो अत्युक्ति नहीं होगी।'.. मङ्गलाचरणगत श्लोकों में भी रूपकों का जो अत्यन्त सुन्दर प्रयोग हुआ है, वह श्लाघनीय है। ज्ञानार्णवकार ने उपमा का भी अनेक स्थानों पर सुन्दरतम एवं सफल प्रयोग किया है जो कि प्रयत्नसाध्य न होकर सहजतया प्रयुक्त है। रसोद्भूति - मानवचेतना वस्तुत: मानव सम्बन्धों से निर्मित होती है। जिनके आधार पर कला, दर्शन, धर्म तथा साहित्य की सृष्टि होती है। इन्हीं सम्बन्धों की अवस्थाविशेष के अनुसार मानव की विश्वदृष्टि निर्मित होती है। विश्वदृष्टि सम्पन्न कलाकार का काव्य महत्त्वपूर्ण हो उठता है। आचार्यशुभचन्द्र की कविता, जिसे उन्होंने महाकाव्यत्व के रूप में प्रस्तुत किया है, काव्यशास्त्रीय दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है। यद्यपि यह विषयप्रधान ग्रन्थ है फिर भी कवित्वप्रतिभा के निदर्शन का अवसरकविको सहज ही उपलब्ध होतारहा है। जिसके कारण इसमें प्रयुक्त मनोरम शब्दावलीरुचिर एवं सरस रूप में संयोजित होने से काव्यगत आकर्षण एवं सुग्राह्यता को विकसित करती है। यद्यपि इसमें सभी प्रकार के रसों की योजना है, किन्तु प्रधान रूप से शान्त रस मुखरित होता है। जैसा किडॉ.दर्शनलता का मत है _ 'आचार्य शुभचन्द्र के ग्रन्थ का लक्ष्य बहिरात्म भाव से अन्तरात्म भाव को प्राप्त करते हुए परमात्म भाव में अधिष्ठित होना है। अत: सहज ही यह शान्त स्स से जुड़ जाता है। कथानक में वैयक्तिक चरित्र का आलम्बन न होते हुए भी ग्रन्थकार ने प्रतिपाद्य विषय को निर्वेदसंपृक्त भावों के साथ बड़े ही कौशल से उपस्थित किया है। ..... शान्त रस ने उसमें संपृक्त होकर उसे अध्यात्म मन्दाकिनी का रूप प्रदान कर दिया है।' विविध विषयगत प्रसङ्गों में विविध रसों की छटा दृष्टव्य है। पाठक रचना का आस्वाद करते हुए निश्चयत: संवेग और निर्वेद का अनुभव करता है। कभी-कभी तो ग्रन्थसे इतना अधिक जुड़ जाता है कि अपने को दृष्ट संसारसे ऊपर अनुभूत करता है और यही सार्थकता ग्रन्थकार के श्रम को अपेक्षित होती है, जिसे ज्ञानार्णवकारने पा लिया है। ज्ञानार्णव की टीकायें एवं टीकाकार - अध्यात्मयोग के इस ग्रन्थ ज्ञानार्णव का सर्वप्रथम प्रकाशन जैन संस्कृति संरक्षक संघ, सोलापुर से सन् 1977 में हुआ था। इसमें मूल श्लोकों के साथ संस्कृत की टीका भी 1. ज्ञानार्णव, 1/2. 2. ज्ञानार्णव : एक समीक्षात्मक अध्ययन, पृ. 119. 38