________________ हृदयस्पर्शी एवं प्रभावक हो उठते हैं। उनकी कथन पद्धति ही इस तरह की होती है। तब ज्ञान के समुद्र को अवगाहित करने वाले आचार्य शुभचन्द्र की शब्दयोजना का मूल्यांकन कर पाना दुष्कर कार्य है। जबकि उन-जैसे कवि एवं सिद्धान्तपारगामी के लिए यह सब स्वत:स्फूर्त था। उनके द्वारा प्रयुक्त शब्द अपने अर्थ की स्वयं मूर्ति निर्मित कर पाठक और श्रोता के समक्ष उपस्थित हो जाते हैं। यही कारण है कि ज्ञानार्णव का गद्य भाग हो या पद्य, दोनों के अर्थावबोध में परिश्रम नहीं करना होता। उनके शब्द प्राञ्जल और मञ्जल दोनों होते हैं, जो नि:सन्देह काव्य में वैशिष्ट्य का निर्माण कर देते हैं। उपर्युक्त कथन की पुष्टि के लिए ज्ञानार्णव में पदे-पदे सन्दर्भ उपस्थित हैं, किन्तु विस्तारभय के कारण यहाँ मात्र एक ही सन्दर्भ उपस्थित करना चाहेंगे। वह है - सङ्गैः किं न विषाद्यते वपुरिदं किं छिद्यते नामयैः मृत्युः किं न विजृम्भते प्रतिदिनं द्रुह्यन्ति किं नापदः / श्वभा: किं न भयानका:स्वपनवहोगा न किं वञ्चका: येन स्वार्थमपास्य किन्नरपुराख्ये भवे ते स्पृहा / / 1 / / ' अर्थात् हे आत्मन् ! इस संसार में संग कहिए धन-धान्य, स्त्री-कुटुम्बादिक के मिलाप रूप जो परिग्रह हैं, वे क्या तुझे विषाद रूप नहीं करते ? तथा यह शरीर है, सो रोगों के दारा छिन्न रूप वा पीड़ित नहीं किया जाता है ? तथा मृत्यु क्या तुझे प्रतिदिन ग्रसने के लिए मुख नहीं फाड़ती है ? और आपदायें क्या तुझसे द्रोह नहीं करती हैं ? क्या तुझे नरक भयानक नहीं दिखते ? और ये भोग हैं सो क्या स्वप्न के समान तुझे ठगने वाले (धोखे देने वाले) नहीं हैं ? जिससे कि तेरे इन्द्रजाल से रचे हुए किन्नरपुर के समान इस असार संसार में इच्छा बनी हुई है ? अलङ्कार योजना - आचार्य शुभचन्द्र तत्त्वद्रष्टा एवं शाब्दिक प्रतिभा के अनुपम धनी थे। वे योगतत्त्व को स्वयं ही आत्मसात् कर रहे थे। अत: उनकी शाब्दिक अभिव्यक्ति ऐसी मनोज्ञ, मृदुल और मनोहर रूप लिए नि:सृत होती कि अलङ्कारमूलक उपादान तो स्वयं ही उनके साथ आकर जुड़ जाते। इस विषय में एक सन्दर्भ दे देना उचित होगा / यथा - भुवनाम्भोजमार्तण्डं धर्मामृतपयोधरम्।। __ योगिकल्पतरुं नौमि देवदेवं वृषध्वजम् / / वृष के चिह्न को धारण करने वाला जो देवों का देव ऋषभ जिनेन्द्र समस्त लोकरूप कमल को विकसित करने के लिए सूर्य के समान है, धर्मरूप अमृत की वर्षा करने के लिए मेघ के समान है, तथा योगी जनों के मनोरथ को पूर्ण करने के लिए कल्पवृक्ष के समान है, उसे मैं नमस्कार करता हूँ। 1. जैनदर्शन : मनन और मीमांसा, पृ. 630-1. 2. ज्ञानार्णव, 2/1. . 37