________________ में अति कुशल होने के कारण प्रतिपाद्य विषयवस्तु के उपस्थापन में आचार्य पूर्णत: सफल रहे हैं, यह नि:संकोच कहा जा सकता है। ज्ञानार्णव का स्रोत - आचार्य शुभचन्द्र दिगम्बर जैन परम्परा से सम्बद्ध थे इन्हें पूर्ववर्ती आचार्यों द्वारा प्रणीत विशाल साहित्य प्राप्त था। जिसका इन्होंने ज्ञानार्णव ग्रन्थ की रचना में भरपूर उपयोग किया। जिनमें आध्यात्मिक और दार्शनिक विषयों पर रचे गए आचार्य कुन्दकुन्द, उमास्वामी, समन्तभद्र, पूज्यपाद, अकलंक और जिनसेन के ग्रन्थ मुख्य हैं। इनमें से समन्तभद्र, देवनन्दी, अकलंक और जिनसेन स्वामी आदि के नामों का उल्लेख भी किया है। विषय-विवेचन के सन्दर्भ में जब विचार करते हैं तो ज्ञानार्णव ग्रन्थ की रचना में इन पूर्ववर्ती आचार्यों की रचनाओं का प्रभूत प्रभाव परिलक्षित होता है। यथा - ध्यान के तीन भेदों के वर्णन का मूल स्रोत आचार्य कुन्दकुन्द के प्रवचनसारादि में निहित है। आचार्य देवनन्दी के समाधितन्त्र और इष्टोपदेश का प्रभाव भी ज्ञानार्णव पर दृष्टिगोचर होता है। जिनसेन के आदिपुराण के 21 वें सर्ग में जो ध्यान का विवेचन उपलब्ध है उसका प्रभाव ज्ञानार्णवं के सवीर्यध्यान और आसनजय प्रकरणों में स्पष्ट है। संक्षिप्तत: ज्ञानार्णव रचना से पूर्ववर्ती कतिपय उन आचार्यों और उनके ग्रन्थों का उल्लेख किया जा सकता है, जिनका कि प्रभाव स्पष्ट है / वे हैं - आचार्य गुणधर - कषायपाहुड, पुष्पदन्त-भूतबली - षट्खण्डागम, यतिवृषभ- तिलोयपण्णत्ती, कुन्दकुन्द - प्रवचनसार, समयसार, नियमसार, मोक्षपाहुड आदि, अकलंक - तत्त्वार्थवार्तिक, स्वरूपसम्बोधन, जिनसेन - आदिपुराण, रामसेन - तत्त्वानुशासन, वट्टकेर - मूलाचार, अमितगति - योगसारप्राभृत, पद्मसिंह - णाणसार, आचार्य शिवार्य- भगवती आराधना, गुणभद्र - आत्मानुशासन और गुरुदास - योगसार आदि। रचना शैली - आचार्य शुभचन्द्र में कवित्व की अद्भुत रचनाधर्मिता थी। वे प्रतिपाद्य विषयको अभीप्सित छन्दों और शब्दों में पिरोने में कुशल थे। वे उन शाब्दिकों में से थे, जिनको शब्द प्रयुक्त होने के लिए स्वयं खोजा करते हैं। उनके द्वारा अनुपयुक्त मान हटाए जाने परवे अर्थहीन-से कोशस्थ हो गए होते हैं। आपने ज्ञानार्णव में वर्णिक औरमात्रिक छन्दों का प्रयोग जिस सरल एवं सफल शैली में किया है उससे आपके परिनिष्ठित रचनाकर्मी होने की जानकारी मिलती है। आपके द्वारा प्रयुक्तवर्णिक छन्दोंको निम्न पद्यों में देखाजा सकता है मालिनी - जिसके प्रत्येक पाद में दो नगण. एक मगण और दो यगण होते हैं 1. वृत्तरत्नाकर, 3/87 35