________________ विषय में विशेष विवेचन किया गया है। अड़तीसवें सर्ग में 116 पद्य हैं और ये पदस्थध्यान का विस्तृत विवेचन करते हैं। इसमें मन्त्र-पदों के अभ्यास एवं उनके फल का सुन्दर कथन हुआ है। उनतालीसवें सर्ग के 46 पद्य रूपस्थ ध्यान का वर्णन करते हैं। इसमें विशेष रूप से अर्हन्त भगवान का ध्यान करने की प्रेरणा दी गई है। चालीसवाँ सर्ग 31 पद्यों का है, जो रूपातीतध्यान का वर्णन करता है। जिसमें सिद्धत्व के ध्यान और उसकी प्राप्ति का कथन किया गया है। इकतालीसवाँ सर्ग 27 पद्यों में समाप्य है और यह धर्मध्यान के फल का वर्णन करता है। बयालीसवाँ सर्ग 88 पद्यों में निबद्ध है, जो शुक्लध्यान का विस्तृत विवेचन करता है। इसी के अन्त में ज्ञानार्णव का महत्त्व बतलाते हुए ग्रन्थ की समाप्ति की गई है। जैन आध्यात्मिक योग साधना की परम्परा का जो क्रम आचार्य शुभचन्द्र ने प्रस्तुत किया है वह परम्परित होते हुए भी सर्वथा मौलिक रूप से लिपिबद्ध हुआ है और उसका प्रभाव स्पष्टत: दीर्घकालीन दिखाई देता है। उन्होंने इन सब विषयों पर पूर्वपक्ष का उपस्थापन करके जैन दृष्टिकोण का विवेचन किया और आत्मोज्ज्वल्य की दृष्टि से कहाँ-कहाँ किसकी उपयोगिता है उसका बड़े ही स्पष्ट, तटस्थ और निर्भीक शब्दों में आख्यान किया है। रचनातत्त्व - डॉ. दर्शनलता की दृष्टि से ज्ञानार्णव के रचनातत्त्वों में जो प्रमुख उद्देश्य रहा है वह है - 'आचार्य शुभचन्द्र की दृष्टि में एक ऐसे साधक का जीवन उद्दिष्ट था जो लौकिक जीवन से सर्वथा पराङ्मुख हो / बात सही भी है कि जब तक ऐसा नहीं हो पाता तब तक व्रत-अव्रत के मिले-जुले जीवन से साध्योपलब्धि बहुत दूर रहती है। किन्तु धीरे-धीरे गृही भी अव्रतमय जीवन का परित्याग करता हुआ व्रतमय जीवन को स्वीकार करे, यह अपेक्षित ही है। इसीलिए ग्रन्थ की विषयवस्तु श्रमणों या संन्यासियों के लिए ही उपयोगी हो ऐसा नहीं माना जा सकता / गृहस्थों को भी उस श्रेणी तक पहुँचाने का उद्देश्य है। क्रमिक अभ्यास चलेगा तभी तो यह सध पाएगा।'' आचार्य शुभचन्द्र के समकक्ष पातंजलयोग, सिद्धयोग, हठयोग आदि सभी योग परम्पराएँ थीं। इसलिए उन्होंने नाम संकेत न करते हुए भी उन द्वारा स्वीकृत विधाओं की भी स्थान-स्थान पर चर्चा की है। अत: निष्कर्ष रूप में उपयोगकर्ता को उपादेय तत्त्व से अवगत कराकर हेय से बचने का संकेत किया है। तत्त्वज्ञान में निष्णात तथा शब्दशिल्प 1. ज्ञानार्णव एक समीक्षात्मक अध्ययन, पृ. 114.