________________ नवम सर्ग में 42 पद्य हैं, जिनमें सत्य महाव्रत का स्वरूप वर्णित है। दशम सर्ग में 20 पद्य हैं और अस्तेय महाव्रत का कथन इस सर्ग में हुआ है। एकादश सर्ग में 48 पद्यों दारा ब्रह्मचर्य महाव्रत का सुविस्तृत वर्णन हुआ है। व्दादश सर्ग के 59 पद्यों में विशेष रूप से स्त्री के स्वरूप का दिग्दर्शन कराया गया है। त्रयोदश सर्ग के 25 पद्य कामसेवन के दोषों का निरूपण करते हैं। चतुर्दश सर्ग में 45 पद्य हैं, जो स्त्रीसंसर्ग के निषेध में व्याप्त हैं। पञ्चदश सर्ग के 48 पद्य वृद्धसेवा की प्रशंसा में सार्थक हैं। जिसमें कहा गया है कि वृद्धसेवा करने से कषाय रूपी अग्नि शान्त होती है और रागद्वेष का उपशम हो चित्त प्रसन्न होता है / षोड़श सर्ग में 42 पद्य हैं, जो परिग्रहत्याग महाव्रत का वर्णन करते हैं। सत्तरहवेंसर्ग में 21 पद्यों द्वारा आशा की निन्दा की गई है। अष्टादशसर्ग में पाँच समितियों का वर्णन 39 पद्यों में पूर्ण हुआ है। 77 पद्यों वाला एकोनविंश सर्ग कषाय के परिणामों को दिखाता है। बीसवाँ सर्ग 38 पद्यों द्वारा जितेन्द्रिय होने के उपाय दिखाता है। इक्कीसवाँ सर्ग यद्यपि 27 पद्यों में निबद्ध है और इसमें बहुत कुछ गद्यांश भी सम्मिलित है। इसमें त्रितत्त्वयोग का प्रकरण निरूपित हुआ है। जिसमें क्रमश: पृथ्वीतत्त्व, जलतत्त्व, अग्नितत्त्व और वायुतत्त्व का सविस्तार वर्णन है। बाईसवेंसर्ग में 35 पद्य हैं, जो मन के व्यापार को रोकने के लिए यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि इन आठयोगाङ्गों का उल्लेख करते हैं। इसमें भी कुछ गद्यांश दृष्टव्य है। तेईसवेंसर्ग में राग-द्वेष का निरोध करने के उपाय 38 पद्यों में व्याख्यायित हैं। साम्यभाव का विवेचन करने वाला चौबीसवाँ सर्ग 33 पद्यों का है। पच्चीसवें सर्ग में आर्त्तध्यान का निरूपण 43 पद्यों द्वारा किया गया है। छब्बीसवेंसर्ग में रौद्र ध्यान का वर्णन 44 पद्यों में हआ है। सत्ताईसवें सर्ग में ध्यान के योग्य व प्रतिकूल स्थान तथा ध्यान की वृद्धि के लिए उपयोगी मैत्री, करुणा, प्रमोद और माध्यस्थ्य जैसी भावनाओं का विवेचन 34 पद्यों में हुआ है। . अहाईसवाँ सर्ग ध्यान के योग्य स्थान, आसन के भेद और ध्यान के योग्य आसनों की विवेचना 40 पद्यों में करता है। उनतीसवें सर्ग का विषय प्राणायाम है, जो 102 पद्य तक विस्तृत है। इसमें कहा गया है कि प्राणायाम करने से चित्त स्थिर हो जाता है, विषयवासनाएँ नष्ट हो जाती हैं और आत्मशक्ति उदबुद्ध हो जाती है। तीसवाँ सर्ग प्रत्याहार और धारणा के वर्णन में आया है। इसमें मात्र 14 पद्य हैं। इकतीसवें सर्ग में 42 पद्य हैं, जो सवीर्यध्यान का वर्णन करते हैं। बत्तीसवेंसर्ग का विषय भेदविज्ञान है तथा यह 104 पद्यों में निबद्ध है। तेतीसवाँ सर्ग 22 पद्यों का है, जिसमें आज्ञाविचय धर्मध्यान का स्वरूप बतलाया गया है। 17 पद्यों वाला चौतीसवाँसर्ग अपायविचय धर्मध्यान का स्वरूप वर्णित करता है। पैंतीसवें सर्ग में 31 पद्य विपाकविचय धर्मध्यान के निरूपण में सार्थक हैं और छत्तीसवें सर्ग के 186 पद्य संस्थानविचय धर्मध्यान का वर्णन लोकसंस्थान रूप में करते हैं। सैंतीसवें सर्ग में 33 पद्य हैं, जो पिण्डस्थध्यान का वर्णन करते हैं। इसमें धारणा के 31