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________________ का अनेक अवस्थाओं के साथ निरूपण किया गया है। जीव के जन्म और मरण का कोई साथी नहीं। 12 पद्यों में निबद्ध अन्यत्व भावना बताती है कि आत्मा अनादिकाल से परपदार्थों को अपना मानकर उनमें रमता है, इसी कारण से संसार में परिभ्रमण किया करता है। अशुचि भावना में 13 पद्य हैं, जिनमें शरीर की अशुचिता का विचार किया गया है। आस्रवभावना में मात्र 9 पद्य हैं। संवर भावना में 12, जिनमें कहा गया है कि अपने स्वरूप में मन को निश्चल करना ही संवर भावना है। निर्जरा भावना में भी 9 पद्य हैं। जिनमें निर्जरा के उपायों का वर्णन है। धर्म भावना में 23 पद्य हैं और इनमें धर्म का स्वरूप तथा उसका महत्त्व प्रतिपादित किया गया है। लोक भावना कुल 7 पद्यों में निबद्ध है, जिनमें लोक के स्वरूप का विवेचन किया गया है। बोधिदुर्लभ भावना में 13 पद्य हैं, जिनमें बोधि अर्थात् त्नत्रय की प्राप्ति की दुर्लभता निरूपित की गई है। अन्त में इन बारह भावनाओं के अभ्यास का महत्त्व बतलाया गया है। तृतीय सर्ग में ध्यान का स्वरूप वर्णित है। इस सर्ग में 36 पद्य हैं। संसार में मनुष्य पर्याय का प्राप्त होना काकतालीयन्याय के समान दुर्लभ है। उसमें भी जो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों का अविरोध भाव से सेवन कर मोक्ष पुरुषार्थ की ओर प्रवृत्त रहता है वही आत्मसिद्धि पा सकता है। चतुर्थ सर्ग में 62 पद्य हैं। इसमें ध्यान के चार भेद - आर्त, रौद्र, धर्म और शुक्ल बतलाएं हैं। ध्यान करने वाला ध्याता, ध्यान, ध्यान के दर्शन, ज्ञान, चारित्र सहित समस्त अंग, ध्येय तथा ध्येय के गुण-दोष, ध्यान के नाम, ध्यान का समय और ध्यान के फल का वर्णन किया गया है। ध्याता के स्वरूप का विवेचन करते हुए बताया है कि जो जितेन्द्रिय है, अप्रमादी है, कष्टसहिष्णु है, संसार से विरक्त है, क्षोभरहित है और शान्त है ऐसा व्यक्ति ही ध्याता हो सकता है / ध्याता को कान्दपी आदि पाँच भावनाओं का त्याग करना चाहिए। ध्याता को हास्य, कौतूहल, कुटिलता, व्यर्थ बकवाद आदि क्रियाओं का भी त्याग करना चाहिए। ध्यान का आशय मन को एकाग्र करना या चित्त की चंचलता को रोकना है। पञ्च सर्ग में 29 पद्य हैं। इनमें ध्यान करने वाले योगीश्वरों का स्तवन हुआ है। षष्ठ सर्ग के 59 पद्यों में सम्यग्दर्शन का वर्णन किया गया है। सम्यग्दर्शन पापरूपी वृक्ष को काटने के लिए कुठार है और पवित्र तीर्थों में भी प्रधान है / सम्यग्दर्शन के विषय सप्ततत्त्व, नवपदार्थ और पञ्चास्तिकायादि का वर्णन भी सुन्दर रीति से किया गया है। सप्तम सर्ग 23 पद्यों में पूर्ण होता है। इसमें सम्यग्ज्ञान का स्वरूप, भेद एवं महिमा का वर्णन किया गया है। अष्टम सर्ग 59 पद्यों में अहिंसा महाव्रत के वर्णन में निबद्ध है। इसमें पाँच प्रकार के चारित्र, पाँच महाव्रत, पाँच समितियाँ एवं तीन गुप्तियों का कथन भी सुबोध शैली में हुआ है। 30
SR No.004283
Book TitleBhartiya Yog Parampara aur Gnanarnav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendra Jain
PublisherDigambar Jain Trishala Mahila Mandal
Publication Year2004
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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