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________________ प्रतिपाद्य विषय - किसी भी लेखक की कृति अपनी समग्रता में लेखक का जीवन के प्रति जो दृष्टिकोण है उसी को प्रतिबिम्बित करती है। हर एक कृति में मानव-जीवन के किसीन-किसी पक्ष की सम्यक अभिव्यक्ति रहा करती है। अत: साहित्यिक का व्यक्तिगत जीवन दर्शन का कृति में रूपायित होना अभिव्यक्ति की अनिवार्यता बन जाता है। फलस्वरूप किसी भी कृति का मूल्य निर्धारण उसमें अभिव्यक्त जीवन-दर्शन की उत्कृष्टता-निकृष्टता पर ही निर्भर हो जाता है। __ ज्ञानार्णव एक ऐसी ही अनुपम कृति है, जिसमें जीवन का यथार्थ दिग्दर्शित है। इसलिए यह जीवनदर्शन का पर्याय रूप मानी जा सकती है। इसमें भारतीय संस्कृति में निहित मूल्यों का न केवल निर्वाह हुआ है वरन् व्यक्ति अपने जीवन का निर्माण कैसे कर सकता है इसकी शिक्षा भी प्रसारित हुई है। आचार्य शुभचन्द्र ने स्वयं अपने जीवन का निर्माण किया था। इसलिए उनके अनुभव की समग्रता सम्पूर्ण कृति में दिखाई देती है। चूंकि आचार्य शुभचन्द्र स्वयं योगी थे, इसलिए उनके द्वारा जहाँ योग पर लिखा जाना अपेक्षाकृत ही नहीं अपितु अनिवार्य था, वहीं उनकी विषय की सूक्ष्मता और आत्मदर्शन के विश्लेषण के लिए प्रामाणिक भी। यह कृति कृतिकार की एकमात्र उपलब्ध रचना है। यद्यपि यह भी ज्ञात नहीं कि इनकी अन्य भी कोई रचना है। लेखक ने इसको महाकाव्यात्मक विधा के अनुसार सर्गों में विभाजित किया है। इससे संकेत मिलते हैं कि इनकी कई अन्य रचनाएँ और होना चाहिए, जो इसकी पूर्ववर्ती रही हों, तभी विकास के : * अन्तिम सोपान स्वरूप इस महाकाव्यात्मक रचना की पूर्ति की हो। ग्रन्थ में कुल 42 सर्व हैं। जिनमें वर्णित विषयवस्तु निम्नानुसार है - जैसा कि सुप्रसिद्ध है ज्ञानार्णव ध्यान, योग आदि का विस्तार से वर्णन करता है। साथ ही व्यावहारिक जीवन में क्या उपादेय है, क्या हेय - जैसे विषयों पर भी प्रकाश डालता है। ग्रन्थ का आरम्भ मङ्गलाचरण से ही हुआ है। प्रथम सर्ग में 49 पद्य हैं। महाकाव्यों के अनुरूप आरम्भ में सज्जन प्रशंसा की गई है। द्वितीय सर्ग में 12 भावनाओं का वर्णन है। प्रथम अनित्य भावना के लिए 47 पद्य हैं। इसमें इन्द्रियजन्य सुख और सांसारिक विभूति को क्षणविध्वंसी बतलाया गया है। द्वितीय भावना अशरण भावना है। इसमें कुल 19 पद्य हैं। जगत् में इस जीव को कोई शरण नहीं हो सकता, इसका विवेचन इन पद्यों में है। तीसरी संसार भावना है। इसमें 17 पद्य निबद्ध हैं। इनमें चारों गतियों के दुःखों का वर्णन है। . . एकत्व भावना चौथी है और इसमें 11 पद्यों द्वारा आत्मा के अनन्तज्ञानादि स्वरूप
SR No.004283
Book TitleBhartiya Yog Parampara aur Gnanarnav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendra Jain
PublisherDigambar Jain Trishala Mahila Mandal
Publication Year2004
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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