________________ एवं मन्प्रयोग को महत्ता दी, तो नाथयोगियों ने हठयोग का समर्थन किया। इस प्रकार विभिन्न दर्शनों ने अपने-अपने वैचारिक दृष्टिकोण और मान्यताओं के बीच योगसाधना के विभिन्न रूपों को प्रचलित किया / योग साधना, आसन, मुद्रा, प्राणायाम आदि बाह्य अंगों में प्रवाहित तो हुआ किन्तु इसमें सबसे अधिक मान्यता ध्यान प्रक्रिया को मिली। ध्यान साधना यद्यपि योग साधना का अंग मानी जाती है। किन्तु अपनी सर्वोत्कृष्टता एवं प्रचलित प्रतिष्ठा के कारण वह योग साधना का ही पर्याय बन गई। इसलिए कहीं-कहीं अन्य आने वाले साहित्यकारों ने योग साधना के लिए ही ध्यान शब्द प्रयुक्त किया / ध्यान का स्वरूप, उसके भेद-प्रभेद और सहायक सामग्री रूप आसन-प्राणायामादि अष्टांगयोग विषयक विवेचन तथा ध्यान की प्रक्रिया में ध्येय और ध्याता के बीच संबंधित क्रिया की व्याख्या व्यक्ति को ध्यान जैसी क्लिष्ट साधना का सरलतम रूप में लोगों के समक्ष व्यक्त करना है। ध्यान के महत्त्व एवं फल के विवेचन के साथ अन्य ग्रन्थों से तुलना आगे के अध्यायों की रूपरेखा है। जिसमें भारतीय योग परम्परा का वही रूप मिलता है जो सन्तों और साहित्यकारों की अनुभूति और अभिव्यक्ति है। जो युगों-युगों से भारतीय योग परम्परा को समृद्ध कर अविरल प्रवहमान किये हैं। क्योंकि भारतीय युग चेतना कभी विशृंखल नहीं हुई वह विभिन्न दर्शनों एवं सम्प्रदायों के माध्यम से भटकते मानव को जहाँ एक सूत्र में पिरोये हुए है वहीं मानव के चरम लक्ष्य अर्थात् आत्मदर्शन, आत्मानुभूति में अहम् भूमिका का निर्वाह कर रही है। क्योंकि सत्य एक है, किन्तु उसके अनेक पहलू हैं। संसार में वह नाना रूपों में व्यक्त होता है। उसकी अनुभूति भी विभिन्न प्रकार से होती है। यही कारण है कि कई दार्शनिक चिन्तनधाराएं चला करती हैं। किन्तु अन्ततोगत्वा वे सभी धाराएंसागर में समा जाती हैं। इसलिए कहा जाता है कि . मनष्य को प्राप्त ज्ञान के सारे साधनों से. अनभव में आने वाली सारी सष्टि को. समग्र रूप में समझने का प्रयत्न ही दर्शन है और उसका लक्ष्य आत्मिक सुख चिरन्तन आनन्द है। जिसे योग, ध्यान आदि के माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है। भारतीय योग परम्परा के विशाल प्रवाह में आचार्य शुभचन्द्र का योगदान ज्योतिर्मान् ध्रुवतारे की तरह अलग-थलग व सदा प्रकाशमान होते रहने वाला है। उनके दारा रचित ज्ञानार्णव भारतीय साहित्य भण्डार की वह अक्षय निधि है, जिसको पाकर किसी भी साधक को मात्र गौरव ही प्राप्त नहीं होता अपितु उसके मार्गदर्शन से अपने लक्ष्य को प्राप्त करने की वह सामर्थ्य प्रस्फुटित होती है, जिसके लिए वह जन्म-जन्मान्तर से साधनारत है।