________________ दारा अर्जित कर्मों की शुद्धि करना ही है। इस दृष्टि से समिति, गुप्ति आदि आचारविचार का अनुष्ठान उत्तमयोग है, क्योंकि इनसे संयम की वृद्धि होती है और योग भी आत्मा की ही विशुद्ध अवस्था का मार्ग है, जिससे जीव को सर्वोच्च अवस्था की प्राप्ति होती है। जैन परम्परा में मन, वचन और काय की प्रवृत्ति भी योग शब्द से अभिहित होती है। किन्तु योगसाधना को व्यक्त करने वाले अनेक शब्दों को जैनदर्शन में स्थान प्राप्त है जैसे - ध्यान, तप, समाधि, संवर आदि। समाधि, तप, ध्यान आदि शब्दों का उपयोग योग की तरह ही हुआ है और वीर्य, स्थान, उत्साह, पराक्रम, चेष्टा, शक्ति एवं सामर्थ्य शब्द प्रकारान्तर से योग के अर्थ को ही व्यंजित करने वाले माने गए हैं। निष्कर्ष रूप से यह कहा जा सकता है कि महर्षि पतंजलि वह पहले व्यक्ति हैं, जिन्होंने वैदिक परम्परा में विशृंखल रूप में यत्र-तत्र प्राप्त साधना-पद्धतियों को अनुशासित कर एक व्यवस्थित साधना-प्रक्रिया का रूप दिया। पातंजल योगसूत्र दर्शन एवं प्रक्रिया दोनों का श्रेष्ठतम मिश्रण माना जा सकता है। इस प्रकार पतंजलि ने परम्परा से चली आती हुई अस्तव्यस्त योग-प्रक्रियाओं को सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक रूप में संगठित किया। . ईसा की तीसरी-चौथी शताब्दी के उपरान्त भारत के विभिन्न साधना-सम्प्रदायों में तन्त्र का प्रवेश हुआ है। कालान्तर में जैन, बौद्ध, शैव, वैष्णव आदि सम्प्रदाय तंत्र के प्रभाव से आक्रान्त हुए हैं। योग की पातंजल दृष्टि में भी तन्त्रप्रयोग से कुछ परिवर्तन लक्षित हुए। पतंजलि का राजयोग हठयोग एवं लययोग के रूप में विकसित हुआ है। तंत्र की पिंड-ब्रह्माण्ड ऐक्यवाली दृष्टि के परिणामस्वरूप शरीरस्थ नाड़ीचक्रों का प्रवेश राजयोग में हुआ है। .. विभिन्न धार्मिक संप्रदायों में भी योग का प्रवेश हुआ है। बुद्ध एवं महावीर के धर्म में योग पहले से ही विद्यमान था। किन्तु तन्त्रप्रवेश के साथ बौद्धों एवं जैनों से योग में भी नाड़ीचक्रों का प्रवेश हुआ। वैष्णवों के पांचरात्रसाहित्य में भी इस नाडीचक्र, कुंडलिनी आदि का विस्तृत विवरण सुलभ होता है। अत: यह कहा जा सकता है कि विभिन्न धर्मसम्प्रदायों में राजयोग अपने विकसित रूप में ही फल-फूल सका है। किसी भी साधना-पद्धति को योग के लिए स्वीकार करने में किसी प्रकार की 1. योगविंशिका, 1. 2. योगभेददात्रिंशिका, 30. .3.पंचसंग्रह, भा.2,4. 23