________________ तत्त्वानुशासन, कार्तिकेयानुप्रेक्षा, ज्ञानसार (णाणसार), योगसारप्राभृत, ज्ञानार्णव, अमितगतिश्रावकाचार, तत्त्वसार, आराधनासार, आचारसार, चारित्रसार, वसुनन्दिश्रावकाचार, महापुराण, हरिवंशपुराण इत्यादि जैन ग्रन्थों में ध्यान-योग की विपुल सामग्री प्राप्त होती है। आचार्य शुभचन्द्र ने ज्ञानार्णव में पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत ध्यानों का विस्तृत वर्णन किया है। यह ग्रन्थ ध्यान-योग का अत्यन्त उपयोगी एवं महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। हरिभद्रसूरि ने योगबिन्दु, योगदृष्टिसमुच्चय, योगविंशिका, योगशतक और षोड़शक ग्रन्थों को लिखकर जैन योग को एक नया आयाम दिया है। हेमचन्द्रसूरि ने भी योगशास्त्र में आसन, प्राणायाम एवं ध्यान से सम्बन्ध रखने वाली अनेक बातों का विस्तृत रूप से वर्णन किया है / यह ग्रन्थ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण एवं उपयोगी है / उपाध्याय यशोविजयकत अध्यात्मसार अध्यात्मोपनिषद तथा टीकासहित बत्तीस बत्तीसियाँयोग एवं ध्यान से सम्बन्धित विषयों पर लिखी गईं हैं। जैनाचार्यों द्वारा स्वीकृत योग कीचरम परिणति आत्मा को उसकी अनादिकालीन कर्म कालिमा से शुद्ध करके उसकी ही यथार्थ निज निर्मल दशा में नियुक्त कर देती है, जहाँ फिर आत्मप्रदेशों का परिस्पन्द सर्वदा के लिए निवृत्त हो जाता है। अत: परिस्पन्दनात्मक योग से अयोगस्थिति में, अयोगिजिन के परिस्पन्दनात्मक मन, वचन, काय की प्रवृत्ति का निरोध योग है। जैन परम्परा में योग शब्द का पातंजल योगदर्शन सम्मत प्रथम प्रयोग आचार्य श्री कुन्दकुन्द स्वामी द्वारा किया गया है। योग को परिभाषित करते हुए उन्होंने लिखा कि "जो साधु रागादि के परिहार में आत्मा को लगाता है अर्थात् आत्मा में आत्मा को लगाकर रागादिक का त्याग करता है वह योग भक्ति युक्त है / दूसरों को योग किस प्रकार हो सकता है जो साधु सर्व विकल्पों के अभाव में आत्मा को लगाता है अर्थात् आत्मा में आत्मा को जोड़कर सर्व विकल्पों का अभाव करता है। वह साधु योगभक्ति युक्त है। विपरीत अभिप्राय का परित्याग करके जो जिनकथित तत्त्वों में आत्मा को लगाता है उसका वह निजभाव योग होता है।'' - आचार्य हरिभद्रसूरि ने भी 'मोक्ष की प्राप्ति के लिए जो धर्म क्रिया अथवा विशुद्ध व्यापार किया जाता है वह धर्मव्यापार योग है। यम-नियमादि का व्यापार जीव के परिणामों की शुद्धि के लिए ही किया जाता है। तथा इनका उद्देश्य मन, वचन और काय 1. धवला टीका, पुस्तक 13. 2. नियमसार, गाथा 137-9.