________________ 6.खेणनाथ, 7. नागनाथ, 8. भर्तृनाथ तथा 9. गोपीचन्द्रनाथ। यह पन्थ अलग-अलग नामों से भी जाना जाता है। जैसे - सिद्धमत, योगमार्ग, योगसम्प्रदाय, अवधूतसम्प्रदाय, अवधूतमत आदि। इसमें दीक्षा धारण करने के समय कान फड+वाकर कुण्डल धारण करने के कारण इन्हें कनफटा योगी भी कहते हैं। इन नाथपंथियों के साहित्य में बौद्धों की साधना पद्धति की बहुतसी बातों का समन्वित रूप देखकर डॉ. राधाकान्त मुखर्जी ने निष्कर्ष निकाला है कि 'नाथ सिद्ध आधे बौद्ध और आधे हिन्दू थे किन्तु पूर्णयोगी थे। ये दसवीं से ग्यारहवीं शताब्दियों के दौरान हए थे। विद्वानों ने सामाजिक दृष्टि और धर्मसाधना आदि से संबद्ध दृष्टिकोणों की समानता आदि के आधार से नाथों को सिद्धों का उत्तराधिकारी माना है। किन्तु जहाँ डॉ. रामकुमार वर्मा व महापंडित राहुल सांकृत्यायन जैसों का मत इनके समर्थन में है, वहीं कतिपय इस विचारधारा के विपरीत भी हैं। हठयोग की साधना का उद्देश्य भी राजयोग प्राप्ति था / मुद्रा का अर्थ भी वज्रयानियों की तरह स्त्री होकर कान में धारण किया जाने वाला कुण्डल है / अत: साधनात्मक दृष्टि से दोनों अभिन्न नहीं थे। इतना ही नहीं, नाथयोगी शैव थे, और उनमें शिवशक्ति के सामरस्य दारा चित्त की समता की प्राप्ति होती थी, वज्रयानियों की तरह शून्य और करुणा के युगनद्ध दारा नहीं / बौद्ध सहजिया-साधकों की काया-साधना का लक्ष्य जहाँ महासुख की प्राप्ति था, वहीं नाथपंथियों का लक्ष्य अमरता एवं शिवत्व की प्राप्ति। सहजिया-साधकों ने महासुखात्मक शून्य ज्ञान के लिए नारी को अपरिहार्य माना, किन्तु नाथयोगियों ने उसका निषेध किया। इन और अनेक तर्कों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला गया है कि इस प्रकार नाथ, सिद्ध और बौद्ध भिन्न-भिन्न हैं तथा उनके ब्दारा प्रवर्तित प्रचारित संप्रदाय और धर्ममत समकालीन होकर भी भिन्न-भिन्न हैं। जो समानताएँ मिलती हैं, वे भारतीय तांत्रिक धर्म की विशेषताएँ हैं, जो एक साथ ही जैनों, बौदों, शैवों, शाक्तों और वैष्णवों आदि सभी में समान रूप से मिलती है / इस प्रकार बौद्ध-सिद्धों, नाथसिद्धों एवं संतों के मत को एक ही स्रोत का मान लेना अनुचित है।' नाथयोग में हठयोग तथा तन्त्रयोग के समान ही गुरु की महत्ता स्वीकार की जाती है। वहाँ कहा गया है कि - 'गुरु की कृपा से ही संसार के बन्धन तोड़कर शिव की 1. I bid. P. 10 & Gorakhnath and the Kantata yogis, P. 235-6. 2. गोस्वामी, प्रथम खण्ड, वर्ष 24, अध्याय 12,1990 पृ. 92. 3. कबीर की विचारधारा, पृ. 153. 4. Gorakhnath and the Kanfata Yogis. P. 235-6.