________________ - पातंजल योग -पातंजल योग साधना सांख्यसिद्धान्त की नींव पर आधारित है। इसका प्रमुख ग्रन्थ योगसूत्र चार पादों में विभक्त है। प्रथम पाद का नाम समाधि पाद है जिसमें योग के लक्षण, स्वरूप और उसकी प्राप्ति के उपायों का वर्णन है। द्वितीय पाद का नाम साधनापाद है, इसमें दुःखों के कारणों पर प्रकाश डाला गया है। तृतीय पाद विभूतिपाद है, जिसमें धारणा, ध्यान एवं समाधि का वर्णन हुआ है। __पातंजल योगदर्शन के अनुसार 'एक ध्येय में एकतानता, चित्तवृत्ति का एकरुप तथा एकरस बने रहना ध्यान है।'' अत: चित्त की एकाग्रता के लिए समस्त वृत्तियों का निरोध जरूरी माना जाता है / ये वृत्तियाँ संसार में प्रवृत्तियों के कारण उत्पन्न होती हैं। जिनसे धर्माधर्म तथा वासनाओं आदि को जन्म मिलता है। इन वृत्तियों को पाँच प्रकार का माना गया है - 1. प्रमाण, 2. विपर्यय, 3. विकल्प, 4. निद्रा और 5. स्मृति। सामान्यत: योगदर्शन में योग के दो भेद होते हैं - सम्प्रज्ञात और असम्प्रज्ञात। चित्त में अनेक वृत्तियाँ रहती हैं। किसी एक वस्तु में ध्यान स्थिर होने पर, उनमें से एक ही वृत्ति कार्यशील होती है और अन्य वृत्तियाँ क्षीण होती है / उसको प्रज्ञा कहते हैं। अत: एकाग्र भूमि में एक वस्तु के सतत् भाव में लगे रहना सम्प्रज्ञात समाधि है तथा असम्प्रज्ञात समाधि अथवा योग के अन्तर्गत सभी वृत्तियों का पूर्णत: निरोध अनिवार्य होता है। सम्प्रज्ञात समाधि के चार भेद निर्दिष्ट किये गए हैं - 1. वितर्कानुगत, 2. विचारानुगत, 3. आनन्दानुगत और 4. अस्मितानुगत / असम्प्रज्ञात समाधि कैवल्य की स्थिति है, क्योंकि इस समाधि में चित्त की अवस्था बिलकुल शान्त एवं संस्कार रहित होती है, लेकिन ऐसी अवस्था में संस्कार बहुत बाधक बनते हैं। जिनका पूर्वजन्मानुसार जीव में आगमन होता रहता है। इनका कारण अविद्या होती है। इसी से कर्म बंधते हैं और इन कर्मो से क्लेश उत्पन्न होते हैं। अत: इन वासनाओं, कर्मों और क्लेशों का सर्वथा नाश विवेक या सम्यग्ज्ञान प्राप्त कर लेने पर ही संभव होता है। तभी आत्मतत्त्व को पहचानने की शक्ति उत्पन्न होती है। ऐसी स्थिति की प्राप्ति ही आत्मलीनता अथवा कैवल्यधाम है, जो कि योग का लक्ष्य होता है। इस प्रकार योगदर्शन के अनुसार मन:शुद्धि करके क्रमश: आत्मस्वरूप में स्थित होने के लिए आठ योगांगों का वर्णन मिलता है, जो यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान एवं समाधि के नाम से प्रसिद्ध हैं। 1. भारतीय संस्कृति और साधना, भाग 2, पृ. 397. 2. पातञ्जलयोगदर्शन, 1/2. 3. योगदर्शन, 1/17. 4. वही, 4/34