________________ अर्नेस्ट बुड की दृष्टि में लययोग, भक्तियोग और मंत्रयोग हठयोग के भीतर आते हैं तथा कर्मयोग एवं ज्ञानयोग राजयोग के भीतर / लययोगादि को हठयोग के भीतर रखने का कारण यही है कि वे शारीरिक साधनों पर विश्वास करते हैं और उसी के द्वारा मन पर नियन्त्रण की प्रक्रिया स्वीकार करते हैं।' इसलिए बिना हठयोग के राजयोग दुर्लभ है तथा बिना राजयोग के हठयोग नटव्यापार मात्र है। इसी बात का समर्थन करते हुए महामहोपाध्याय पं. कविराज गोपीनाथ बताते हैं हठयोग से स्वभावत: राजयोग का विकास होता है।' हठयोग का अर्थ है - चन्द्र और सूर्य या इडा-पिंगला या प्राण-अपान का मिलन अर्थात् ह-सूर्य, ठ-चन्द्र यानि सूर्य और चन्द्र का संयोग। हठयोग का उद्देश्य शारीरिक तथा मानसिक उन्नति है। यह योग सर्वप्रथम शारीरिक विकास या उन्नति की ओर.विशेष ध्यान देता है, क्योंकि शरीर की सुदृढता और स्वस्थता से ही इच्छाओं पर नियन्त्रण होता है और इससे मन शान्त अवस्था को प्राप्त होता है, जो योग धारण के लिए परम आवश्यक है। __ हठयोग में प्रमुख सात अंग माने गए हैं - 1. षट्कर्म, 2. प्राणायाम, 3. आसन, 4. मुद्रा, 5. प्रत्याहार, 6. ध्यान और 7. समाधि। इनमें आसन, मुद्रा एवं प्राणायाम का विशेष महत्त्व दृष्टिगोचर होता है। इन प्राणायाम आदि यौगिक क्रियाओं के द्वारा शरीर हलका करने एवं भारी बनाने की लब्धि प्राप्त होती है, लेकिन इन लब्धियों की प्राप्ति ही अन्तिम लक्ष्य नहीं होता। उसका उद्देश्य आन्तरिक देह की शुद्धि करके राजयोग की ओर जाना होता है। अत: हठयोग के बिना राजयोग और राजयोग के बिना हठयोग असम्भव है। अभिहित मुद्राओं तथा प्राणायामों द्वारा नाड़ियों को शुद्ध किया जाता है, जिन पर हठयोग आधृत है। हठयोग का सम्बन्ध शरीर से अधिक है और मन तथा आत्मा से कम।' ऐसी स्थिति में मन निरोधावस्था में पहुँचता है, जहाँ से राजयोग का प्रारम्भ होता है। नाड़ियों के शुद्ध होने पर कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत होती है तथा यह षट्चक्रों का भेदन करती हुई सहस्राधार में पहुँचती है। ऐसी स्थिति में साधक का चित्त निरालम्ब एवं मृत्युभय रहित होता है जो योगाभ्यास की जड़ है। 1. हठयोगप्रदीपिका, 1/1-2, 69. 2. ग्रेट सिस्टम्स ऑफ योगा अर्नेस्ट, पृ. 8-9. 3. भारतीय संस्कृति और साधना, प्रथम खंड, पृ. 395. 4. वही, 1/1, 3/15. 5. घेरण्डसंहिता, 1/10-11. 6. नाथयोग, पृ. 19. 7. हठयोगप्रदीपिका, 2/75. 8. सन्त मत का सरभंग सम्प्रदाय, प्र.66-68. 12