________________ हैं - 1. एकतत्त्वघनाभ्यास, 2. प्राणों का निरोध एवं 3. मनोनिरोध / एकतत्त्वघनाभ्यास के अन्तर्गत ब्रह्माभ्यास द्वारा अपने को उसी में लीन कर देना होता है। प्राणों के निरोध में प्राणायाम आदि की अपेक्षा की जाती है एवं कुण्डलिनी शक्ति को जाग्रत करके ब्रह्मत्व प्राप्त किया जाता है। मनोनिरोध में समस्त इच्छाओं का पूर्ण परिशमन किया जाता है। इस ग्रन्थ में भी सदाचार एवं सदविचार के सम्यक् परिपालन पर जोर दिया गया है और विचार को परमज्ञान कहा गया है। सदाचार एवं ज्ञान की उपमा क्रमश: दीपक एवं सूर्य से दी गई है और कहा है कि "जब तक ज्ञान का सूरज प्रकट नहीं होता तब तक अज्ञान के गहन अन्धकार में सदाचार का ही दीपक मार्गदर्शक होता है।''2 अविद्या को दुःखों का मूल कारण माना गया है तथा इसका विनाश सम्यग्दर्शन की प्राप्ति से होता है। इसके अनुसार चित्त की एकदम क्षीण अवस्था हो जाने पर मोक्ष होता है। जबकि वह समस्त क्रियाओं एवं वासनाओं से रहित हो जाता है। संकल्प-विकल्प रहित आत्मस्थिति में मिथ्याज्ञान से उत्पन्न अहंभाव रूपी अज्ञानग्रन्थि का सर्वथा समाप्त हो जाना ही मोक्ष है। योगवाशिष्ट के छह प्रकरणों में योग व ध्यान की व्याख्या की गई है। योगवाशिष्ठ को तो योग का ग्रन्थराज कहा जाता है। हठयोग एवं योग - हठयोगदीपिका के अनुसार शिव हठयोग विद्या के प्रथम उपदेष्टा हैं। गोरक्षशतक, गोरक्षसिद्धान्तसंग्रह, अमनस्कयोगबीज, हठयोग-प्रदीपिका, घेरंडसंहिता, हठतत्त्वकौमुदी, सिद्धसिद्धान्तसंग्रह, सिद्धसिद्धान्त-पद्धति, शिवसंहिता आदि ग्रन्थों में इस हठयोग का विस्तृत विवेचन सुलभ होता है। इनके अतिरिक्त विभिन्न योगोपनिषदों में हठयोग एवं उसके अंगों का विवरण प्राप्त होता है। . .. योगशास्त्र में हठयोग का बहुत महत्त्व माना गया है। सामान्य दृष्टि में योग का अर्थ हठयोग ही होता है। और प्राय: हर प्रकार की योगसाधना हठयोग का सहारा लिए बिना पूरी भी नहीं होती। इसका उद्देश्य साधक में राजयोग की योग्यता उत्पन्न कर देना ही है। अर्थात् राजयोग की प्राप्ति के लिए ही इसकी साधना की जाती है। इसका अपना कोई स्वतन्त्र फल नहीं होता। 1. वही, 36/10. 3. वही, 2/16/9. 5. वही, 3/100/37-42. 2. विचार: परमं ज्ञानं / योगवाशिष्ट, 2/16/19. 4. वही, 2/11/41. 6. हठयोगप्रदीपिका, 1/1.