________________ वेदकालीन योग परम्परा - भारतीय संस्कृति में सबसे प्राचीन ग्रन्थ वेद कहे जाते हैं और वेदों में ऋग्वेद सबसे प्राचीन माना गया है। कहा जाता है कि इन वेद मन्त्रों को किसी भी ऋषि या मुनि ने स्वयं नहीं रचा अपितु ऋषि मन्त्रकर्ता नहीं मन्त्रदृष्टा थे। इन मन्त्रों का भगवान् हिरण्यगर्भ ने ऋषियों को साक्षात्कार करवाया था। वेदमन्त्र रहस्यों से भरे हुए हैं, उनके एक-एक पद अनेक भावों को प्रगट करते हैं। उन मन्त्रों को अगर गहराई से देखा जाए तो पता .. चलता है कि वहाँ ध्यान, तप, योग एवं समाधि से सम्बन्धित बहुत मात्रा में सामग्री है। इन्द्र, अग्नि, वरुण एवं सोम आदि देवताओं के वर्णन के पीछे आध्यात्मिकता का सार पाया जाता है। जो गहराई से सोचने पर ध्यान योग के अर्थ में निकलता है। मोहनजोदड़ों की खुदाई से प्राप्त एक मुद्रा पर अंकित चित्र में त्रिशूल, मुकुटविन्यास नग्नता, कायोत्सर्गमुद्रा, नासाग्रदृष्टि एवं ध्यानावस्था में लीन मूर्तियों से ऐसा सिद्ध होता है कि ये / ' मूर्तियाँ किसी मुनि या योगी की हैं जो कि ध्यान में लीन है।' मोहनजोदड़ों का काल प्राग्वैदिक है। वैदिक परम्परा में ध्यान का अस्तित्व चाहे तप के रूप में हो या योग के रूप में किसी-न-किसी प्रकार से अवश्य रहा है। उस काल में विद्वानों का कोई भी यज्ञ-कर्म बिना ध्यान-योग के सिद्ध नहीं होता था। अथर्ववेद में कई प्रकार से योग शब्द का प्रयोग मिलता है। स्पष्टत: नवदार एवं अष्टचक्रादि का विवरण भी प्रतीकात्मक शैली में सुलभ है अथर्ववेद का ऋषि कहता है कि अष्टचक्र एवं नवदारों से यह देवपुरी अजेय है। यहीं पर जो हिरण्यमय कोश आवृत है, वही स्वर्ग है। त्रि-अरयुक्त, त्रिप्रतिष्ठित उस हिरण्यमय कोश में जो आत्मयुक्त यक्ष (पूज्य अपूर्व पुरुष) विराजमान है, उसे ब्रह्मविद् लोग ही जानते हैं। योग की दृष्टि से प्राणोपासना की महत्ता सर्वमान्य है। यह प्राणोपासना वैदिक संहिताओं, विशेषकर ऋक् एवं अथर्वसंहिताओं में प्राप्त होता है / इसके अतिरिक्त, आरण्यक एवं उपनिषदों में भी इसका प्रभूत उल्लेख मिलता है। ऋग्वेद के ऐतरेय आरण्यक के आदि के तीन अध्यायों में प्राणविद्या का विवेचन मिलता है। इसके प्राणविद्या विषयक 1. मोहनजोदड़ो एण्ड इण्डस सिविलाइजेशन, पार्ट 1, पृ. 53. 2. हिस्ट्री ऑफ एन्शिएण्ट इण्डिया, पृ. 25. 3. ऋग्वेद, 1/18/7. 4. अथर्ववेद, कां. 19, अनु. 1, व. 8 मं. 2. 5. वही, 8/2/31,8/2/32.