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________________ रूप योग की ही साधना की जाती है / ऋषभदेव से लेकर महावीर पर्यन्त सभी तीर्थकर योगी थे। मौर्यकाल से लेकर आज तक की सभी जैन मूर्तियाँ योगी के रूप में ही प्राप्त हुई हैं। सिन्धुघाटी की सभ्यता से प्राप्त ध्यानस्थ योगी की नग्नावस्था और कायोत्सर्ग मुद्रा (पद्मासन) में प्राप्त मूर्ति को देखकर पुरातत्त्ववेत्ता अनुमान लगाते हैं कि उक्त मूर्ति प्रथम जैन तीर्थकर ऋषभदेव की है। चूंकि भगवान् शिव का स्वरूप भी दिगम्बर (नग्न) था इसलिए कुछ विद्वान् उक्त मूर्ति को भगवान् शिव की मूर्ति बताते हैं। उनके तथ्य से ऋषभदेव और शिव की एकाकारता की ओर भी विदानों का ध्यान आकृष्ट हुआ। इसी आधार पर श्री रामचन्द्र दीक्षित ने ईस्वी सन् 3000 वर्ष पूर्व तथा उससे भी प्राचीन भारतवर्ष में प्रचलित योग साधना को पाशुपत योग साधना का प्रारम्भिक रूप माना है। हठयोग में आदिनाथ को हठयोग का आद्यप्रवर्तक मानते हुए उनकी स्तुति की गई है। इससे स्पष्ट होता है कि प्रागैतिहासिक काल में योग की विभिन्न पद्धतियाँ साधना के रूप में प्रचलित थी। अत: भिन्न-भिन्न साम्प्रदायों ने अपने-अपने मतानुसार अपने इष्टदेव को योग का आद्य प्रवर्तक मान लिया है। आर्य साहित्य के भण्डार को मुख्य रूप से तीन भागों में बाँटा गया है - वैदिक, जैन और बौद्ध / ऋग्वेद वैदिक साहित्य का सबसे प्राचीन ग्रन्थ है। प्राचीन उपनिषदों को छोड़कर बाद के उपनिषदों में 'योग' शब्द आध्यात्मिक अर्थ में ही प्रयुक्त हुआ है।' सामान्यत: ऋग्वेद से उपनिषद तक के साहित्य में तपस' शब्द का आध्यात्मिक अर्थ में जितनी छूट के साथ वर्णन किया गया है उतना 'योग' शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है। 'तप' शब्द का प्रयोग 'ध्यान' तथा 'समाधि' के अर्थ में भी हुआ है। . वैदिक परम्परा में ध्यान का अस्तित्व चाहे तप के रूप में हो या योग के रूप में, किन्तुं रहा अवश्य ही है। क्योंकि कोई भी यज्ञकर्म बिना ध्यानयोग के सम्पन्न नहीं होता था। वैदिक विचारधारा के अनुसार जीवन का चरम लक्ष्य दुःख का अभाव रुप मुक्ति या मोक्ष जैसा न होकर, निश्चित रूप से भावात्मक ही रहा है। वह चरम लक्ष्य केवल अमृतत्व या निःश्रेयस ही कहा जा सकता है। वैदिक साहित्य में प्राय: इन्हीं शब्दों द्वारा उस लक्ष्य का निर्देश किया गया है। 1. Jainism the oldest living Religion. P. 49-50. 2. पाशुपत योग का प्रारम्भिक इतिहास, कल्याण (योगांग) पृ. 237 3. श्रीआदिनाथाय नमोऽस्तु तस्मै येनोपदिष्टा हठयोगविद्या। - हठयोगप्रदीपिका 1/1. 4. तैत्तिरीयोपनिषद् 2/4.
SR No.004283
Book TitleBhartiya Yog Parampara aur Gnanarnav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendra Jain
PublisherDigambar Jain Trishala Mahila Mandal
Publication Year2004
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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