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________________ क्योंकि सभी सम्प्रदायों का धर्म रूप लक्ष्य चित्त को निर्मल कर आत्मा का दर्शन करना है। योग साधना के मार्ग अनन्त हैं। भक्तियोग, ज्ञानयोग, कर्मयोग, राजयोग, हठयोग, ध्यानयोग, जपयोग, मन्त्रयोग, तपयोग, लययोग आदि योग की अनेक शाखाएं हैं। मुख्य रूप से भारतीय संस्कृति की तीन प्रमुख धाराओं में मौलिक भिन्नता होने से इसकी मोक्ष प्रापक साधना पद्धतियों में जो पार्थक्य दिखाई देता है उनकी ओर ध्यान आकर्षित करने के लिए योग के साथ वैदिक, बौद्ध, जैन तथा अन्य साम्प्रदायों का नाम जोड़ा गया है। यथार्थ में योग का किसी धर्म सम्प्रदाय अथवा जाति विशेष से कोई सम्बन्ध नहीं है। 'योग' एक व्यापक शब्द है। जिसमें सभी साधना पद्धतियाँ समाहित हैं। ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में योगकर्ता विषयक विश्लेषण - ___ योग परम्परा का प्रारम्भ कहाँ और किसके द्वारा हुआ ? इसके सम्बन्ध में प्रामाणिक रूप से कुछ कहना कठिन है। योग के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य पर विचार करने' पर इतना ही कहा जा सकता है कि आत्मविकास हेतु आध्यात्मिक साधना के रूप में योग का प्रचलन प्रागैतिहासिक काल से चला आ रहा है। सिन्धु घाटी की सभ्यता के अवशेषों से प्राप्त ध्यानस्थ योगियों के चित्र उक्त तथ्य के पोषक प्रमाण हैं। योग के आद्य प्रवर्तक कौन थे इस सम्बन्ध में वैदिक परम्परा 'हिरण्यगर्भ' को योग का आद्य वक्ता मानती है। और योगी लोग इसकी नित्य पूजा करते हैं। जैन परम्परानुसार योग के आद्य : प्रवर्तक प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव थे / महापुराण में ऋषभदेव का एक नाम हिरण्यगर्भ भी है। श्रीमदभागवत के अनुसार ऋषभदेव सिद्धयोगी थे। वैदिक पुराणों के अनुसार भगवान् ऋषभदेव भगवान् विष्णु के पाँचवें अवतार थे। जैन वाङ्मय में भी भगवान् ऋषभदेव की हिरण्यगर्भ के रूप में स्तुति की गई है। उक्त विचारों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि हिरण्यगर्भ और ऋषभदेव दोनों एक ही व्यक्ति के दो नाम हैं जो योग के आद्य प्रवर्तक थे। इस तरह भागवतकार ने भी भगवान् ऋषभदेव को श्रेष्ठ योगी बतलाया है। यों तो कृष्ण को भी योगी माना जाता है, किन्तु कृष्ण का योग 'योगः कर्मसु कौशलम् के अनुसार कर्मयोग था और भगवान् ऋषभदेव का योग कर्मसंन्यास / जैनधर्म में कर्म संन्यास 1. हिरण्यगर्भ: योगस्य वक्ता नान्य: पुरातनः। - महाभारत, 2/349/65. 2. महापुराण, 12/95. 3. श्रीमद्भागवतपुराण, 3/20. 4. आदिपुराण, 24/33.
SR No.004283
Book TitleBhartiya Yog Parampara aur Gnanarnav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendra Jain
PublisherDigambar Jain Trishala Mahila Mandal
Publication Year2004
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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