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________________ इससे स्पष्ट है कि योग समाधि का पर्यायवाची शब्द है। इस धातुकी अकर्मकता भी चित्तवृत्ति निरोध जैसी अन्तस्थ वृत्ति या क्रिया की ओर ही संकेत करती है। योग से जिस एकाग्रता तथा विरतव्यापारान्तरता का बोध होता है उसका पोषण इसी अर्थ से संभव है। क्योंकि समाधि में मनुष्य बिल्कुल विगलित-वेद्यान्तर रहता है। अत: योग शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार की जा सकती है। 'युज्यते समाधौ विधीयते मन: अनेन इति योगः। __ जैनों के अनुसार "शरीर, वाणी और मन के कर्म का निरोध संवर है और यही योग है।''2 आचार्य हरिभद्र के मतानुसार 'योग मोक्ष प्राप्त करने वाला अर्थात् मोक्ष के साथ जोड़ने वाला है।'3 हेमचन्द्र ने 'मोक्ष के उपाय रूप योग को ज्ञान, श्रद्धान और चरित्रात्मक कहा है। बौद्ध विचारकों ने 'योग का अर्थ समाधि किया है तथा तत्त्वज्ञान को योग का प्रयोजन बताया है। योग समस्त स्वाभाविक आत्मशक्तियों की पूर्व विकास क्रिया अर्थात् आत्मोन्मुखी चेष्टा है। इसके द्वारा भावना, ध्यान और समता का विकास होकर कर्म ग्रन्थियों का नाश होता है। वैदिक, बौद्ध एवं जैन ग्रन्थों में योग, समाधि और ध्यान ये समानार्थक भी हैं। ... शाक्तमत के अनुसार योग वह क्रिया है, जिसके द्वारा मनुष्य की चेतना परमात्मा के साथ एकाकार हो जाती है अथवा उसके अत्यन्त निकट सम्पर्क में पहुँच जाती है अर्थात् शाक्त सिद्धान्तों के अनुसार योग की प्रक्रिया द्वारा आत्मा और परमात्मा का ऐक्य सम्पन्न * होता है। आधुनिक विचारकों ने भी प्राय: योग के इन्हीं दोनों अर्थों अर्थात् चित्तवृत्तियों का निरोध और आत्मा का परमात्मा की एकता में समर्थन किया है / भिन्न-भिन्न मतावलम्बिलियों में योग का अर्थ चाहे कुछ भी हो किन्तु संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि मन और तन के विकारों को निकाल कर स्वच्छ बनाना योग क्रिया का प्रतिफल है। सम्पूर्ण सम्प्रदायों से विलग योग की क्रिया सभी सम्प्रदायों में इसी रूप में मान्य है। 1. सिद्धान्तकौमुदी, पृ. 338. 3. योगविंशिका, 1. 5.बौद्धदर्शन, पृ. 222. 2. तत्त्वार्थसूत्र, 9/1. 4. अभिधानचिन्तामणि, 1/77. 6. संत काव्य में योग का स्वरूप, पृ. 155.
SR No.004283
Book TitleBhartiya Yog Parampara aur Gnanarnav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendra Jain
PublisherDigambar Jain Trishala Mahila Mandal
Publication Year2004
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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