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________________ साधकों को प्राणायाम का पहले ही अभ्यास कर लेना चाहिए। उसके बिना मनोविजय . कर पाना संभव नहीं है। उन्होंने प्राणायाम के पूरण, कुम्भक और रेचकये तीन भेद किया हैं। आचार्य शुभचन्द्र ने प्रत्याहार और धारणा का एक ही साथ वर्णन किया है। जो प्रशान्तात्मा योगी इन्द्रियों सहित अपने मन को उनके विषयों से खींचकर जहाँ चाहे वहाँ लगा दे उसे प्रत्याहार कहा जाता है। दोनों नेत्र, दोनों कान, नासिका का अग्रभाग, ललाट, मुख, नाभि, मस्तक, हृदय, तालु एवं दोनों भौहें ये ध्यान के 10 स्थान हैं। चित्त को विषयों से पराङ्मुख कर इनमें से किसी एक स्थान में लगाना धारणा कहलाता है। ध्यान के विविध भेद नामक पाँचवे अध्याय में ध्यान के प्रशस्त और अप्रशस्त ये दो भेद हैं। इनमें भी अप्रशस्त के आर्त्त और रौद्रये दो भेद हैं और प्रशस्त के धर्म्य और शुक्ल ये दो भेद हैं। इनमें भी प्रत्येक के चार-चार और उत्तर भेद सहित हैं। इनमें आदि के दो आर्त और रौद्र संसार के कारण होने से त्याज्य हैं और अन्त के दो धर्म्य और शुक्ल ध्यान मोक्ष के कारण होने से उपादेय हैं। इस अध्याय में इन सब ध्यानों के भेद-प्रभेदों का / विस्तार से वर्णन किया गया है। प्रत्येक ध्यान का स्वरूप-अन्तर बाह्य लक्षण, लेश्या, स्वामी, फल आदि का विवेचन प्रस्तुत किया गया है। ध्यान की प्रक्रिया नामक षष्ठ/छठवें अध्याय में ध्यान की अन्तरंग प्रक्रिया के अन्तर्गत बारह भावना, कषायनिग्रह, इन्द्रियविजय, रागद्वेषनिषेध, साम्यभाव की महिमा आदि विषयों का विवेचन किया गया है। आत्मध्यान की विधि बतलाकर ध्यान का आधुनिक सन्दर्भ में मनोवैज्ञानिक विवेचन हुआ है। सप्तम अध्याय में ध्यान का महत्त्व और उसके फल का विवेचन किया गया है / उपसंहार नामक अन्तिम अध्याय में आचार्य शुभचन्द्र का भारतीय योग परम्परा में अवढान ध्यान का पनरावलोकन आचार्य देव का उत्तरवर्ती ग्रन्थकारों पर प्रभाव इस तरह सम्पूर्ण शोध प्रबन्ध में ध्यान, ध्याता. ध्येय. ध्यान के अंग और उसके फल को दर्शाया गया है, साथ ही ग्रन्थ और ग्रन्थकार के वैशिष्ट्य को प्रतिपादित किया गया है। इस प्रयास में मेरे जैसे लघुबुद्धि से त्रुटियों का होना स्वाभाविक है। यह नहीं कहा जा सकता कि शोध सर्वांगीण है, अपितु इस आक्षेप से भी शोध को मुक्त रखने का प्रयास किया गया है कि शोध अनुपयोगी है। (xxiv)
SR No.004283
Book TitleBhartiya Yog Parampara aur Gnanarnav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendra Jain
PublisherDigambar Jain Trishala Mahila Mandal
Publication Year2004
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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