________________ . रागद्वेषादि की परम्परा के नष्ट हो जाने से अन्तरात्मा के प्रसन्नता के साथ स्वपर विवेक के प्रगट हो जाने पर जो आत्मस्वरूप की उपलब्धि होती है वह शुद्धध्यान है। जैसा अपना सहज अर्थात् निरपेक्ष स्वरूप है उसकी प्राप्ति होना शुद्ध ध्यान है। वह शुद्धध्यान कैसे प्रगट होता है उसके उपाय का भी इस लक्षण में वर्णन किया गया है। रागादि के संस्कार दूर हो उससे अन्तरात्मा निर्मल, निर्भार और शुद्ध ज्ञाता-दृष्टा होता है। आगे इन तीनों ध्यानों के फल को बतलाया कि शुभध्यान से स्वर्गीय सुख की प्राप्ति के साथ परम्परा से मोक्षसुख की प्राप्ति होती है। अशुभध्यान के फलस्वरूप नारकी, तिर्यंच और कुमानसों में उत्पन्न होकर संसार में परिभ्रमण करता हुआ अनेक दुःखों को भोगता है और शुद्धध्यान के प्रभाव से केवलज्ञान को उत्पन्न सकल परमात्मा होकर मुक्ति को प्राप्त करता है। ___ इन ध्यानों के विवेचन से ग्रन्थकार का यह अभिप्राय ध्वनित होता है कि यह जीव दु:ख के कारणभूत अशुभ ध्यान को छोड़कर शुभध्यान के अभ्यास पूर्वक शुद्धध्यान को प्राप्त करने का प्रयास करे। मुख्य रूप से ध्येय के रूप में अरिहंत, सिद्ध परमात्मा और रत्नत्रय से संयुक्त आत्मा को माना गया है। इसके पश्चात् ध्यान के अन्य अनेक भेदप्रभेदों की चर्चा प्रस्तुत की गई है। ध्यान की सहायक सामग्री के रूप में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूपरत्नत्रय के विवेचन के साथ पातंजल अष्टांगयोग का ज्ञानार्णव ग्रन्थ के साथ तुलना करते हुए जैन दर्शन सम्मत अष्टांग योग का तुलनात्मक अध्ययन किया गया है। वैसे तो जैन योग में रत्नत्रय में ही योग के सभी अंगों का अन्तर्भाव हो जाता है फिर भी आचार्य शुभचन्द्र ने कुछ योगांगों का पृथक् नामोल्लेख के साथ और कुछ का बिना नामोल्लेख के वर्णन किया है। आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान इन पाँच योगांगों का नामोल्लेख किया है। यम, नियम और समाधि इन तीन का नामोलेख के विना विवेचन किया है। यम के रूप में पंच महाव्रतों का विस्तृत वर्णन किया है। नियमों का स्पष्टतया कहीं उल्लेख प्राप्त नहीं होता। आचार्य शुभचन्द्र से पूर्ववर्ती आचार्य कुन्द देव ने नियम से करने योग्य रत्नत्रय को ही नियमसार में नियम कहा है और ज्ञानार्णव में भी सर्वप्रथम रत्नत्रय की विवेचना की गयी है। अत: नियम के सम्बन्ध में इनकी मान्यता भी कुन्दकुन्द के समान जान पड़ती है। समाधि का शुक्लध्यान में समावेश होने से उसका अलग से कथन नहीं किया। .. आचार्य शुभचन्द्र ने ध्यानयोग्य आसन के साथ ध्यान योग्य स्थान का भी वर्णन किया है। उन्होंने वर्तमान को दृष्टि में रखते हुए कायोत्सर्ग और पर्यंकासन को ही ध्यान के योग्य माना है। प्राणायाम के विषय में उनका मत है कि ध्यान की सिद्धि के लिए तथा अन्त:करण की एकाग्रता के लिए प्राणायाम उपयोगी है। उनके अनुसार विवेकशील (xiii)