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________________ अशुभ और शुद्ध ध्यान भी कहते हैं। पुण्याशय के वश शुद्धलेश्या के आलम्बनपूर्वक वस्तु स्वरूप का चिन्तन करना शुभध्यान है। पवित्र अभिप्राय होने से प्राणी पापो से बचता है। कषाय से मिली हुए मन, वचन और काय इन तीनों योगों की प्रवृत्ति को लेश्या कहते हैं। लेश्यायें छह हैं - कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म और शुक्ल / इनमें प्रथम तीन अशुभ लेश्यायें हैं और अन्त की तीन शुभलेश्यायें हैं। पीत लेश्या में धर्म के प्रति प्रेम होता है। दान, परोपकार आदि में मन लगता है। कार्य और अकार्य का विवेक रहता है। पद्मलेश्या में और अधिक विशुद्धि होती है। साधुसेवा, देवपूजा आदि में प्रीति होती है। त्यागवृत्ति जगती है, अब वह समता परिणाम के अभ्यास में भी लगता है और शुक्ललेश्या वाला जीव पक्षपात रहित शुद्ध आशय वाला रहता है। इन विशुद्ध लेश्याओं के अवलम्बन से भी शुभध्यान होता है। वस्तु उत्पत्ति, विनाश और ध्रौव्य अर्थात् स्थायीपने से युक्त हो सदा परिणमनशील है। पूर्वपर्याय की अपेक्षा विनाश उत्तर पर्याय की अपेक्षा उत्पाद और द्रव्य सामान्य की अपेक्षा ध्रौव्यपना बना रहता है। मूल रूप से कभी भी किसी वस्तु का सर्वथा .. अभाव नहीं होता और न ही उत्पाद / इस तरह प्रत्येक वस्तु परस्पर विरोधी अनेक धर्मों का पुंज है। वस्तु में वे सब विरोधी धर्म अविरोध रूप से रहते हैं। यही वस्तुका अनेकान्तपना है। जिसका कथन स्यादाद नय के द्वारा किया जाता है। स्यात् का अर्थ कथंचित् किसी निश्चित दृष्टिकोण से वाद का अर्थ कथन करना स्यादाद कहलाता है। जैसे पर्याय की अपेक्षा वस्तु अनित्य ही है, द्रव्य सामान्य की अपेक्षा नित्य ही है। इस तरह वस्तु के स्वरूप का विचार करने से शुभध्यान होता है। जीवों के पापरुप आशय के कारण मोह, मिथ्यात्व, कषाय और तत्त्वविक्रम से अप्रशस्त ध्यान होता है। किसी भी अन्य वस्तु को अपनी समझना, किसी अन्य वस्तु रूप अपने को मानना यह मोह है। मोह जीव के सम्यक्त्व, सुख और चारित्रगुण का घातक है। यह घाति कर्म होने से पाप रूप है। मोह की वजह से ही यह अज्ञानी जीव अपने स्वभाव को ही नहीं जानता। मिथ्यात्व मोह से अलग नहीं है। मिथ्यात्व के दो भेद हो जाते हैं, उनमें अगृहीतमिथ्यात्व को मोह और गृहीतमिथ्यात्व को मिथ्या मान लेने से दोनों में भेद स्पष्ट हो जाता है। कुगुरु, कुदेव, कुशास्त्र आदि के प्रति भक्ति होना, उनमें प्रीति होना यह मिथ्यात्व है। जो आत्मा को कषती है दु:ख देती है आत्मा के सम्यक्त्व और चारित्र गुण का घात करती है वह कषाय है उसके क्रोध, मान, माया, लोभ ये चार भेद हैं। क्रोध के आवेश से व्यक्ति को स्वयं अपनी सुध नहीं रहती। क्रोध में यह जीव अपना और दूसरों का बिगाड़ करता है। मानी पुरुष अपने आपमें कुछ से कुछ कल्पनाएँ करके अपना महत्त्व मान लेता है। मायाचार के परिणाम होने पर अपने को कुछ का कुछ दिखाने की चेष्टा होती है। लोभ के कारण अन्य पदार्थों को अपना बनाना चाहता है। ये सब कषाय भाव पाप के आशय है। वस्तु के सम्बन्ध में विपरीत जानकारी बनाएँ रखना वस्तु विभ्रम है। इन सब पाप रूप अभिप्रायों से निरन्तर अशुभध्यान होता रहता है। (Aarii)
SR No.004283
Book TitleBhartiya Yog Parampara aur Gnanarnav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendra Jain
PublisherDigambar Jain Trishala Mahila Mandal
Publication Year2004
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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