________________ ज्ञानावस्था को माना गया है। अज्ञान की अवस्था विभाव के नाम से जानी जाती है। उससे नाना प्रकार के दुःख यथा जन्म, मरण, जरावस्था, रोग, अनिष्टसंयोगादि विभाव की ही प्राप्ति होती है। यही कारण है कि महर्षि पतंजलि ने इन वैभाविक वृत्तियों से मुक्त होने की अवस्था को योग कहा है। जैन परम्परा में आचार्य श्री उमास्वामी ने मन के चिन्तन का एक ही वस्तु पर अवस्थान अर्थात् केन्द्रित करने को ध्यान कहा है। बौद्ध परम्परा में भी किसी विषय पर चित्त को स्थिर कर चिन्तन करना ही ध्यान माना गया है। वैदिक, जैन और बौद्ध तीनों ही परम्पराओं में ध्यान अभ्यास की विविध विधियों पर पर्याप्त चर्चा मिलती है। प्रायः तीनों परम्पराओं में ध्यान को मोक्ष या कैवल्यप्राप्ति का सबल साधन स्वीकार किया है। आचार्य शुभचन्द्र के अनुसार ध्यान करने वाले ध्याता पुरुष के विवेकज्ञान का होना जरूरी है। क्योंकि जब तक अपने और पराये का सम्यग्ज्ञान नहीं होता, तब तक वह किसका ध्यान करेगा ? स्व-पर की सही जानकारी के बिना जो भी ध्यान होगा वह रागद्वेषमूलक होगा। क्योंकि चिरन्तन काल से ही अज्ञानमय कुवासनाओं के संस्कार निरन्तर चलते रहते हैं। जिससे मन सदा क्षुब्ध और अशान्त बना रहता है। किन्तु जैसे ही सच्चे अनुभवी गुरु की संगति और सदशास्त्रों के गहन मनन-चिन्तन से स्व-परभेद विज्ञान किया जाता है। तभी ज्ञानी जीव ज्ञायक भाव मात्र अपनी आत्मा को पर पदार्थों पर भावों से पृथक् कर आत्मा के शुद्ध स्वरूप का ध्यान करने में सक्षम होता है। उसको यह दृढ निश्चय हो जाता है कि आत्मा से अतिरिक्त पर पदार्थ मेरे नहीं हैं। मैं भी उनका नहीं हूँ। कर्म के निमित्त से जो भी मेरी आत्मा में रागद्वेषात्मक विकल्प जाल उत्पन्न हो रहे हैं वे भी मेरे निज भाव नहीं हैं। मैं तो मात्र ज्ञायक-चेतन पिण्ड हूँ। क्योंकि ये काम-क्रोधादि विकारी भाव पौद्गलिक कर्मों की उदयावस्था और बाह्य में शरीरादि पर पदार्थों के निमित्त से हुए हैं। अत: ये पर संयोगी भाव यह मेरा स्वरूप नहीं हैं। विवेकी जीव विचार करता है कि आत्मातिरिक्त अन्य पदार्थ न मेरे थे और न मैं उनका था, न ये मेरे हैं और न मैं उनका हूँ एवं न ये मेरे होंगे और न मैं इनका होऊगा। इस प्रकार के निरन्तर भेदविज्ञान के माध्यम से ज्ञानी आत्मा, पूर्वसंस्कारजन्य और पर संयोगजन्य सम्पूर्ण काम-क्रोधादि रागद्वेषादि विकारी भावों को जीतने में समर्थ हो जाता है। इस तरह अपने ज्ञान-वैराग्य को वृद्धिंगत करता हुआ ध्यान के अभ्यास में प्रयत्नशील होता है। आचार्य शुभचन्द्र ने संक्षेप रुचिवान् शिष्यों के अनुग्रह के लिए ध्यान के सामान्यतया तीन भेद निर्देशित किये हैं। यह उनकी अपनी विवेचन पद्धति की विशेषता है और इस विवेचन का मूलाधार अध्यात्मयुग के प्रवर्तक आचार्य कुन्दकुन्द दारा रचित प्रवचनसार आदि में उपलब्ध भी है। उपयोग के आधार पर ध्यान के तीन भेद होते हैं। आत्मा के परिणाम विशेष को उपयोग कहते हैं। पुण्याशय या शुभोपयोग इसके विपरीत पापाशय या अशुभोपयोग और इन दोनों से रहित शुद्धाशय या शुद्धोपयोग इन्हें ही शुभ, (vi)