________________ जीवन से सर्वथा पराङ्मुख हो, आध्यात्मिक जीवन जीता हो। ___ आचार्य शुभचन्द्र दिगम्बर जैन परम्परा से सम्बद्ध थे इन्हें पूर्ववर्ती आचार्यो द्वारा प्रणीत विपुल साहित्य प्राप्त था जिसका इन्होंने ज्ञानार्णव ग्रन्थ की रचना में प्रभूत उपयोग किया / जिनमें आध्यात्मिक और दार्शनिक विषयों पर रचे गये आचार्य कुन्दकुन्द, उमास्वामी, समन्तभद्र, पूज्यपाद, अकलंक और जिनसेन के ग्रन्थ मुख्य है आचार्य शुभचन्द्र में कवित्व की अद्भुत रचनाधर्मिता थी। वे प्रतिपाद्य विषय को अभीप्सित छन्दों और शब्दों में पिरोने में कुशल थे। इन्होंने अपनी कृति के मालिनी, स्रग्धरा, वंशस्थ, शिखरिणी, शार्दूलविक्रीडित, मन्दाक्रान्ता, आर्या प्रभृति अनेक छन्दों का प्रयोग किया है। आचार्य शुभचन्द्र के ग्रन्थ का लक्ष्य बहिरात्मभाव से अन्तरात्म भाव को प्राप्त करते हुए परमात्मभाव में अधिष्ठित होना है। अत: सहज ही यह शान्त रस से जड़ जाता है। आगे ग्रन्थ पर संस्कृत, हिन्दी एवं राजस्थानी आदि भाषाओं में उपलब्ध टीका और टीकाकारों का विवरण प्रस्तुत किया गया है। ग्रन्थकार ने स्वयं अपनी एकमात्र उपलब्ध . . कृति में अपना कोई परिचय नहीं दिया अत: ग्रन्थकार का समय निर्धारण भी विद्वानों व अनुमानों के आधार पर किया है। विश्वभूषण कृत भक्तामर कथा के आधार पर आपका किञ्चित् जीवन परिचय प्राप्त होता है। जिसके आधार पर आपका समय भोजराज के समकालीन ग्यारहवीं शती सिद्ध होता है। ज्ञानार्णव का हेमचन्द्र के योगशास्त्र पर स्पष्टत: प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। अत: शुभचन्द्र का समय हेमचन्द्र से कुछ पूर्ववर्ती 11-12 शताब्दी मानना युक्तिसंगत प्रतीत होता है। क्योंकि हेमचन्द्र का समय 1145 से 1229 वि. सं. सुनिश्चित है। भक्तामर कथा के आधार पर आचार्य शुभचन्द्र उज्जयिनी के राजा सिन्धुल के पुत्र एवं भर्तृहरि के बड़े भाई थे। ___अध्याय के अन्त में शोध की दृष्टि से कृति का महत्त्व प्रतिपादित किया गया है। भारतीय संस्कृति ऋषियों के ऋण से उऋण नहीं हो सकती। ऋषियों का उसमें बहुत बड़ा योगदान है। उनके तप के प्रभाव के फलस्वरूप बड़े से बड़ा कार्य सम्पादित हो जाता है। ऋषि भारतीय संस्कृति की नींव हैं। ऋषि की वाणी धर्म है, ऋषियों का कार्य धर्म है, ऋषि धर्म के साक्षात् रूप है। ऋषि वाक्य ही स्मृति और वेद हैं। धर्मग्रन्थों का प्रणयन ऋषियों के योगदान बिना असंभव है। ऐसे ही महान् साधक योगी महाकवि सन्त शुभचन्द्र के द्वारा सर्वजनहिताय ज्ञानार्णव जैसे महाग्रन्थराज की रचना संभव हुई / जिसका एकाग्रतापूर्वक अध्ययन करके प्रत्येक पाठक योग साधना में पारंगत हो सकता है महर्षियों ने धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये चार पुरुषार्थ बतलाये हैं। इनमें शुरु के तीन विनाश से सहित हैं और एक मोक्ष पुरुषार्थ ही अविनाशी है। अत: मुमुक्षु अन्तिम पुरुषार्थ मोक्ष के लिए प्रयास करता है और उसका मार्ग रत्नत्रय है। तत्त्वार्थ का सही श्रद्धान तत्त्वार्थ का सही परिज्ञान और पापक्रिया से निवृत्ति रत्नत्रय का स्वरूप माना गया है। अत: मोक्षाभिलाषी पुरुष को निरन्तर ध्यान का अभ्यास करना चाहिए। आत्मा का शुद्ध स्वरूप