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________________ नहीं होता या किया नहीं जाता उसी प्रकार रागादि भाव से युक्त मन में शुद्ध आत्मस्वरूप नहीं दिखाई देता या देखा नहीं जाता। एकाग्रचिन्तन से विषय और विषयी में एकरूपता आती है / इसी एकरूपता के कारण वहाँ कोई भेद नहीं रहता। और जहाँ भेद नहीं रहता वहाँ चेतना की अनुभूति होती है। एकाग्रता मन को वश करने में सहायक है। ध्यान एकाग्रता के आधार पर हो जाता है। आध्यात्मिकता की परम श्रेणी ध्यान है और एकाग्रता में अस्थिर मन स्थिर रत्नाकर के सादृश्य हो जाता है। अवचेतन में विचारों का दमन करने की अपेक्षा विसर्जन करना एकाग्रता और ध्यान के लिए उपयुक्त है। विचारों का विसर्जन सम्यक्पूर्वक प्राप्त किये गये ज्ञान द्वारा अन्तरंग दृष्टि में रखने पर होता है। क्योंकि जब बाह्य दृष्टि रहती है तब अन्तर्दृष्टि नहीं रहती। अत: विचारों का विसर्जन करने के लिये सम्यग्भावना की प्राप्ति परम आवश्यक है। कारण बिना सम्यग्दर्शन के सम्यग्ज्ञान नहीं होता और बिना सम्यग्ज्ञान के उत्तम चरित्र नहीं होता। इसी से विरहित किया हुआ तप और ध्यान व्यर्थ कहा जाता है। प्रशस्त व अप्रशस्त ध्यान का अवलम्बन लेकर चित्त की एकाग्रता के प्रयास से दिव्य चिन्तामणि रत्न के समान शुद्ध आत्मा व खली के टुकड़ों के समान नि:सार सांसारिक विषय-भोगोपभोग की सामग्री को प्राप्त किया जा सकता है। जिस प्रकार दही को विलोकर उसमें से घी अलग निकाल लेते हैं। उसी प्रकार जो योगी आत्मा और शरीर को भिन्न-भिन्न समझने में चतुर हैं वे ध्यान के द्वारा इस शरीर से शुद्ध आत्मा को सर्वथा भिन्न कर लेते हैं। इस प्रकार का ध्यान करने वाला ध्याता यम, नियम, व्रत, धारणा, कषायों का निग्रह और मन एवं इन्द्रियों पर नियन्त्रण रखने की क्षमता वाला हो। अत: उसे इसी परम सिद्धि के लिए दुर्ध्यान (आर्त्त-रौद्रध्यान) असंयम, चपलता पर निरोध करना चाहिए। इसलिये वैराग्य, तत्त्वचिन्तन, परीषहजय आदि का उल्लेख है / पुन: पूरण, कुम्भक, रेचक, दहन, हवन, आसन, मन्त्र, मण्डल आदि का भी ध्यानावस्था में उपयोग होता है। इसके उपरान्त भी पूर्व संस्कारवश अशुद्धता, अतिचार, अशुभ विचार या बार-बार उपयुक्त रमणीय स्त्री का ध्यान आता हो उस समय उसी का ध्यान करते हुए और उसकी क्षणभंगुरतादि का परिवर्तन तत्त्व चिन्तन की धारा में कर देना चाहिए। इससे साधक के मन में अपने आप ऐसी परिस्थिति उत्पन्न होगी, जिससे साधक के मन में स्त्री आदि विषयक उदासीनता का भाव पैदा होगा और साधक का ध्यान शुभ प्रवृत्तियों में केन्द्रित होगा। अत: शुभ प्रवृत्तियों में ही सुखद मन की स्थिति होती है। इसलिए मन की शुद्धि के बिना सब क्रिया कलाप अनुष्ठान करना केवल कायक्लेश है। इसके लिए इन्द्रियों को विषयों से रोकना आवश्यक है। बिना इन्द्रिय विजय के कषायों पर विजय नहीं होगी। 226
SR No.004283
Book TitleBhartiya Yog Parampara aur Gnanarnav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendra Jain
PublisherDigambar Jain Trishala Mahila Mandal
Publication Year2004
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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