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________________ कषायविजय से मन में शुद्धता आती है। इसी शुद्धता, स्थिरता में ध्याता को ध्यान में ध्येय के प्रति तल्लीनता आती है। इसी तल्लीनता से समग्र दोषों का परिहार होता है और आत्मज्ञान भी आत्मा द्वारा होता है इससे कर्म का क्षय होता है और कर्म क्षय से मोक्ष प्राप्ति होती है। विषय और विषयी के आधार पर ध्यान के कई भेद किये जा सकते हैं। शास्त्रकार मनीषियों व दार्शनिकों ने भले ही ध्यान के अनेक प्रकार का निरूपण किया हो परन्तु . उन्हें दो भेदों में विभक्त किया जा सकता है। वे दो प्रकार शुभ ध्यान और अशुभ ध्यान हैं। जैनाचार्यों ने प्रशस्त और अप्रशस्त नाम को स्वीकार किया है। बौद्धाचार्यों ने कुशलअकुशल नामों से व्यवहार किया है और इसी शुभाशुभ को वैदिक परम्परा में क्लिष्ट और अक्लिष्ट नाम दिया है। जैनागम में प्रमुख चार भेद आर्त, रौद्र, धर्म और शुक्लध्यान हैं। प्रथम दो ध्यान को अप्रशस्त या अशुभ तथा शेष दो को प्रशस्तया शुभ ध्यान की संज्ञा दी गई है। प्रशस्त ध्यान ही मोक्ष प्राप्ति के हेतु माने गए हैं। ज्ञानार्णव में अप्रशस्त अर्थात् अशुभ, शुभ और शुद्ध इन तीनों भेदों का प्रकारान्तर से इसी के अन्तर्गत समावेश किया जा सकता है। पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत ये चार ध्येय के भेद माने गए हैं। रामसेनाचार्य ने मात्र नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव ये चार प्रकार माने हैं। अत: इनकी यह विशेषता है। अन्यत्र ध्यान के 28 भेद और प्रभेद का उल्लेख देखने में आता है। अतएव उक्त चारों प्रकारों में इन्हीं सब भेद-प्रभेदों का समावेश हो जाता है। इसलिए आगम में वर्णित इन्हीं चार प्रकार का विवेचन यहाँ किया गया है। राज्यादि भोगोपभोग, स्त्री,रत्न आदि अलंकार का वियोग न हो और इन्हीं की प्राप्ति की तीव्र अभिलाषा रखते हुए निरन्तर चिन्तन करना आर्त्तध्यान कहलाता है। क्रूर प्रवृत्ति धारण करना, अन्य जीवों के प्रति प्रतिकूलता रखना रौद्रध्यान है। हिंसा, चोरी, मैथुनादि कार्य में निरन्तर रत रहना आर्त्त-रौद्रध्यान है। दूसरे शब्दों में मनोज्ञ वस्तु के संयोगादि कारण.सांसारिक वस्तओं मेंरागभाव रखना आर्तध्यान है। रागढेषात्मक भावों के कारण वांछनीय वस्तु के प्रति मोह होता है, मोह भाव रखना अज्ञान है। इसी अज्ञान भाव का परिवर्तन दुःख में होता है अत: इष्ट में सुख अनिष्ट में दुःख मानते हुए, इन्हीं के सम्बन्ध में निरन्तर सोचना आर्त्तध्यान है। इसी के कारण जीव भयभीत, शोकाकुल, संशयी, प्रमादी, विषयी और निद्रालु होता है। इसलिए बुद्धि स्थिर नहीं होती। विवेकहीनता की यही धारा छठे गुणस्थान तकरहती है। रौद्रध्यान में संक्षेप में सब पापाचार का अन्तर्भाव होता है / इसके भी चार भेद हैं - हिंसानन्द, मृषानन्द, चौर्यानन्द, परिग्रहानन्द / इससे पता चलता है कि इस ध्यान का ध्याता अपध्यान में लगा रहता है . और इससे दूसरे प्राणियों को पीड़ा पहुँचती है। इस प्रकार का ध्यान वाला जीव अनुकम्पा 227
SR No.004283
Book TitleBhartiya Yog Parampara aur Gnanarnav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendra Jain
PublisherDigambar Jain Trishala Mahila Mandal
Publication Year2004
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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