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________________ प्रयोग हुआ है। ध्यान की प्रारम्भिक अवस्था में अन्तरंग में आने वाले विचार यथार्थ या अयथार्थ हो सकते हैं। अत: इन परिस्थितियों में इन विचारों का निरीक्षण करना होता है। निरीक्षण का मतलब है कि रागद्वेष भावना को उभरने न दें और जहाँ रागद्वेष की परम्परा नहीं रहती वहाँ शान्ति और समता का वातावरण रहता है। इसी वातावरण में ध्यान का निवास रहता है। बिना ध्यान के योगी का ध्येय सिद्ध नहीं हो सकता। ध्येय साधना में योगी के अन्तरंग में सुदृढ़ निर्णय और धैर्य की आवश्यकता रहती है। यह योग्यता ध्यान के माध्यम से अनायास अर्जित हो जाती है। भले ही और कुछ भी प्राप्त हो न हो परन्तु आन्तरिक शान्ति अवश्य ही मिलती है, विक्षोभ आकुलता व्यग्रता मिटती है। ऐसे ही शान्त स्थिर मन में नव स्फुरणों का साम्राज्य रहता है। जैसे कहा भी है - स्वस्थे चित्ते बुद्धय: प्रस्फुरन्ति ध्यान की अवस्था में यह आवश्यक है कि व्यक्ति सतत् जागरूक रहे, मन के चक्कर में न पड़कर उससे ऊपर उठकर अपने स्वरूप में स्थिर रहे। आलस्य और नींद के त्याग के लिए नासाग्रदृष्टि रखना परम उत्तम है। चित्त को किसी एक वस्तु अथवा बिन्दु पर केन्द्रित करना एक कठिन साधना है। क्योंकि यह किसी भी एक विषय पर अन्तर्मुहूर्त से ज्यादा समय स्थिर नहीं हो सकता। चंचल मन जब तक जीता नहीं जाता तब ध्यान नहीं होता। जैसे जलाशय में निरन्तर प्रतिक्षण तरंगें उठती रहती हैं, वैसे ही मन में विचारों की तरंगें उठती रहती हैं। इन्हीं उठी हुई तरंगों को स्थिर करना योग है। यह राजयोग ध्यान के लिए उपयुक्त है। प्राणायाम आदि भी मन पर नियन्त्रण करने के लिए सहायक हैं। परन्तु जैनदर्शन में हठयोग की अपेक्षा राजयोग पर जोर दिया गया है। कारण रागद्वेष मन से उत्पन्न होने वाली तरंगें हैं। इसलिए अनेक प्रकार के ध्यान की सिद्धि और चित्त को स्थिर करने के लिए इष्ट-अनिष्ट पदार्थों में राग, द्वेष और मोह का त्याग करना आवश्यक है। ध्यान की विधि में प्रथम मन को जीतना आवश्यक समझा गया है। जिसने अपने मन को वश में नहीं किया उसका ध्यान, तप, शास्त्राध्ययन, व्रतधारण और ज्ञान ये सब तुषखण्डन के समान व्यर्थ है। कारण मन के वशीभूत हुए बिना ध्यान की सिद्धि नहीं होती। जो मन को जीते बिना ध्यान की चर्चा करता है तो उसने ध्यान को अभी तक समझा ही नहीं। मन को जीतने के लिये मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ इन चार भावनाओं का निरन्तर अभ्यास करना आवश्यक माना गया है। इन्हीं चार भावनाओं से पवित्रता व शुद्धता आती है। मन रागादि भाव से विमुक्त होता है। जैसे मैले दर्पण में रूप का अवलोकन 225
SR No.004283
Book TitleBhartiya Yog Parampara aur Gnanarnav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendra Jain
PublisherDigambar Jain Trishala Mahila Mandal
Publication Year2004
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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