________________ के रूप में तप, समाधि, धीरोध, समरसीभाव एवं सवीर्यध्यान आदि का वर्णन किया गया है। चित्त को किसी एक विषय पर केन्द्रित करना अथवा मन, वचन एवं काय के निरोध को ध्यान कहते हैं। ध्यान के चार प्रकारों को बतलाते हुए उसे दो भागों में विभक्त किया गया है। जो कि प्रशस्तध्यान और अप्रशस्तध्यान के अन्तर्गत आते हैं। आर्त एवं रौद्रध्यान अप्रशस्तध्यान हैं। आर्त्तध्यान एवं रौद्रध्यान संसार बंधन के हेतु माने जाते हैं। जो कि दुःखों से व्याप्त एवं समस्त क्लेशों से भरे हुए हैं। इन दोनों ध्यानों के चार-चार प्रभेदों की भी व्याख्या की गई है। प्रशस्तध्यान के अन्तर्गत धर्मध्यान एवं शुक्लध्यान आते हैं। धर्मध्यान आत्मविकास की प्रथम सीढ़ी हैं। इससे साधक को आत्मज्ञान की प्राप्ति होती है और आत्मज्ञान को प्राप्त करके वह अपने कर्मों को क्षीण कर देता है। साधक जब ध्यान की पराकाष्ठा पर पहुँच जाता है तब उसे शुक्लध्यान कहा जाता है। शुक्लध्यान योग की सर्वोच्च अवस्था मानी गयी है। धर्मध्यान को करते हुए साधक शुक्लध्यान की अवस्था में पहुँचता है। शुक्लध्यान में चित्त का पूर्ण निरोध हो जाता है। साधक के समस्त कर्मों का क्षय हो जाता है। और मन का आत्मा की सत्ता में विलय हो जाता है। इस ध्यान का फल मोक्ष है। धर्म और शुक्लध्यान के भी चार-चार भेद निर्दिष्ट किये गए हैं। शुक्लध्यान के प्रथम दो ध्यान अर्थात् पृथक्त्ववितर्कवीचार एवं एकत्ववितर्कअवीचार शुक्लध्यान बौद्ध एवं पतंजलि के योगदर्शन से मिलते-जुलते हैं। बौद्ध योग में बतलाये गए ध्यान के भेदों में वितर्क एवं वीचार ध्यान बतलाया गया है। सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाती शुक्लध्यान एवं वैदिक योग परम्परा में प्रयुक्त अध्यात्म प्रसाद और ऋतम्भरा में अर्थसाम्यता मालूम पड़ती है। पतंजलि केयोगदर्शन में असम्प्रज्ञात समाधि का उल्लेख किया गया है / जो शुक्लध्यान के अन्तिम भेद समुच्छिन्न क्रियाअप्रतिपाती से साम्य रखती है। इस अवस्था में साधक की श्वासोच्छ्वास की क्रिया भी समाप्त हो जाती है और वह जीवनमुक्त हो जाता है। चित्त को किसी एक स्वभाव में स्थिर करना ध्यान कहा गया है। जब तक चित्त को स्थिर नहीं किया जाता तब तक कर्मों की संवर-निर्जरा नहीं हो सकती और बिना संवर-निर्जरा के परम ध्येय की प्राप्ति नहीं होती। ध्यान या समाधि का निरूपण प्रकारान्तर से इस प्रकार किया जा सकता है कि जिसमें सांसारिक समस्त कर्मबन्धनों का विनाश हो ऐसे शुभचिन्तन स्वरूप का विमर्श करना / तप, समाधि धीरोध स्वान्तनिग्रह अन्त:संलीनता साम्यभाव समरसीभाव सवीर्यध्यान आदि का ध्यान के पर्यायरूप में 224