________________ हुए, अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन पांच महाव्रतों का वर्णन किया है। द्वितीय नियम नामक योगांग का भी रत्नत्रय में ही समावेश हो जाता है। जिसकी चर्चा योगांगों के विवेचन में की जा चुकी है। आचार्य शुभचन्द्र स्वयं एक महान् योगी थे, अत: इन्हें योगमार्ग में आने वाली बाधाओं का स्वयं अनुभव प्राप्त था। इसलिए ही इन्होंने योग के पथ पर चलने वाले साधकों को इन बाधाओं से बचाने के लिए कषाय-निग्रह, इन्द्रियजय, रागद्वेषनिषेध, ब्रह्मचर्यपालन, स्त्रीसंसर्गनिषेध आदि की विस्तार से चर्चा की है। इसके साथ-साथ एक योगी में प्राणीमात्र के प्रति करुणाभाव और गुणीजनों के प्रति प्रमोदभाव, दुखी प्राणियों के प्रति करुणाभाव और धर्ममार्ग से विपरीत चलने वाले विरोधी जनों के प्रति माध्यस्थ भाव होना चाहिए / वृद्धजनों की सेवा को भी आचार्य शुभचन्द्र ने भावों की शुद्धता, विद्या, विनय और शील आदि की वृद्धि एवं परिपालन के लिए बहुत हितकारी माना है। ग्रन्थकार ने धर्मध्यान के प्रसंग में साम्यभाव का विवेचन किया है। साम्यभाव को ही परमध्यान बतलाया है। फिर उन्होंने संसार के कारणभूत आर्त्तरौद्र ध्यानों का विवेचन किया है। इसके बाद वे आत्मोत्कर्षक ध्यान के मूल विषय पर आते हैं। उन्होंने सबसे पहले ध्यानविरुद्ध स्थानों का कथन किया है। जिनका योगी को वर्जन करना जरूरी है। फिर ध्यान के योग्य स्थान, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा आदि का वर्णन करते हुए धर्मध्यान पर आते हैं। इसका भेद सहित विस्तार से वर्णन किया है। फिर शुक्लध्यान का विवेचन किया है। जिसकी परिपूर्णता समाधि में होती है। आत्मविकास के लिए ध्यान योग एक प्रमुख साधन है। भारतीय संस्कृति के समस्त चिन्तकों, विचारकों एवं मननशील ऋषि-मुनियों ने योगसाधना के महत्त्व को स्वीकार किया है। प्रस्तुत शोध प्रबन्ध भारतीय योग परम्परा और ज्ञानार्णव में भारत के प्रमुख वैदिक, जैन, बौद्ध सम्प्रदायों में प्रचलित योग पद्धतियों पर विचार किया गया है। वैदिक परम्परा में योग शब्द का समाधि एवं तप के रूप में प्रयोग किया गया है। लेकिन उपनिषदों में ध्यान का प्रचुरमात्रा में उल्लेख किया गया है। वहाँ ध्यान के दारा ही परमात्मा की प्राप्ति का निर्देश किया गया है। ध्यान के द्वारा चित्त एक बिन्दु पर केन्द्रित किया जाता है। गीता में भी भक्ति-योग, ज्ञानयोग एवं कर्मयोग के साथ ध्यानयोग के महत्त्व को बतलाया गया है। बौद्धयोग में भी ध्यान की अनेक क्रियाओं के विषय में बतलाया गया है। बौद्ध परम्परा में तो ध्यान का इतना महत्त्व बढ़ा कि वहाँ एक सम्प्रदाय ध्यानसम्प्रदाय के नाम से प्रख्यात हुआ। . जैन परम्परा में ध्यान का एक विशिष्ट एवं उच्च स्थान है। वहाँ ध्यान के पर्याय 223