________________ आचार्य शुभचन्द्र को अपनी पूर्ववर्ती आचार्यों की रचनाओं में उपलब्ध थे, जिनका उन्होंने भरपूर उपयोग किया। जैन योग के निरूपण की दृष्टि से ज्ञानार्णव ग्रन्थ में समग्रता के दर्शन होते हैं। आचार्य शुभचन्द्र ने अपने ग्रन्थ में एक सांगोपांग स्वतन्त्र विषय के रूप में योग को प्रस्तुत किया है। उनकी कलम एक ही दिशा को समुद्दिष्ट किये रही। अत: वहाँ जिन विषयों का समावेश वाँछित नहीं था, वह नहीं हो सका। आचार्य शुभचन्द्र ने भावनात्मक दृष्टि से मन की पवित्रता को ध्यान योग के लिए प्रथम आवश्यकता के रूप में स्वीकार किया। इसके लिए उन्होंने प्रारम्भ में ही भावों की शुद्धता के लिए बारह भावनाओं का निरूपण किया, जो कि वैराग्य को उत्पन्न करने वाली और समता-सुख को जाग्रत करने वाली हैं। एकत्व, अन्यत्व आदि भावनाओं से अनुभावित योगी जब यह मानने लगता है कि "मैं तो सर्वत: एकाकी हूँ, अकेला आया हूँ, अकेला जाऊँगा,येसब सांसारिक सम्बन्ध जिनकी श्रृंखलाओं में जकड़ा हूँ, मिथ्या है। ये सभी पदार्थ व व्यक्ति जिनके सम्मोह ने मुझे आत्मविस्मृत कर रखा है, सब अन्य हैं।" ध्यान में जाने की सामान्यत: यह पहली पृष्ठभूमि है। अतएव ग्रन्थकार ने इतना करने के पश्चात् साधक को ध्यान का प्रारम्भिक परिचय दिया है। जिससे वह एक संस्कार लिए आगे साधना के मार्ग पर गतिशील हो। उन्होंने जो आचार्य कुन्दकुन्द आदि पुरातन आचार्यों के अध्यात्म प्रधान ग्रन्थों को आश्रय बनाकर संक्षेप में ध्यान के शुभ, अशुभ और शुद्ध ये तीन भेद किए हैं, वह इनकी विवेचन पद्धति की अपनी निजी विशेषता है। इससे पूर्ववर्ती किसी आचार्य ने ध्यान के इन तीन भेदों का उल्लेख नहीं किया है। उपयोग के त्रिविध प्रकारों का अवश्य ही आचार्य कुन्दकुन्द, योगीन्दुदेव आदि ने प्रवचनसार और परमात्मप्रकाश आदि ग्रन्थों में विस्तृत विवेचन किया है। ध्यान के विस्तृत वर्णन के प्रारम्भ में ही आचार्य शुभचन्द्र ने ध्याता पुरुष के स्वरूप का निर्देश करते हुए कौन-सा व्यक्ति ध्यान के योग्य होता है और कौन-सा अयोग्य, इस तरह ध्याता के गुण-दोषों की चर्चा विस्तारपूर्वक की है। जो अन्यत्र मिलना कठिन है। ध्यान की सिद्धि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की एकता रूप रत्नत्रय की शुद्धतापूर्वक होती है। क्योंकि रत्नत्रय आत्मा की निष्कलुष परिणति का नाम है। और चित्त की निर्मलता ही ध्यान सिद्धि का प्रमुख कारण है। तत्त्वार्थ का यथार्थ श्रद्धान, ज्ञान और पापाचरण से निर्वृत्ति होना रत्नत्रय का लक्षण है। सम्यग्ज्ञानी पुरुष रागद्वेष की निर्वृत्ति के लिए चारित्र को अंगीकार करता है। अतएव आचार्य शुभचन्द्र ने सम्यक्चारित्र के अन्तर्गत ध्यान के अंगभूत यम नामक योगांग का विस्तृत वर्णन करते 222