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________________ इस प्रकार अब तक सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाती और व्युपरतक्रियानिवृत्ति इन दोनों शुक्लध्यानों का निरूपण किया, इन दोनों ध्यानों का फल मोक्ष है।'' प्रथम प्रकार के शुक्लध्यान के फलस्वरूप संवर, निर्जरा और अमरसुख प्राप्त होता है, क्योंकि इससे मुक्ति की प्राप्ति नहीं होती। यद्यपि इन आर्त-रौद्र आदि सभी ध्यानों में चित्त की स्थिरता की समानता है तो भी फल की विभिन्नता से इनमें भिन्नता सिद्ध होती है। आर्तध्यान का स्वभाव धूम के समान है इससे तिर्यञ्च आयु का बन्ध होता है। रौद्रध्यान का स्वरूप अन्धकार के समान है. इससे नरकायु का बन्ध होता है। धर्म्यध्यान का स्वभाव अग्नि के समान है इससे अन्तरात्मा में प्रकाश होता है तथा कर्मों की निर्जरा होती है और शुक्लध्यान सूर्य के समान है इससे लोकालोक प्रकाशित करने वाला केवलज्ञान प्राप्त होता है और अन्त में मोक्ष की प्राप्ति होती है। योगी तप, आसन, प्राणायाम, समाधि, ध्यान आदि दारा योगसिद्धिं करता है अथवा मोक्षाभिमुख होता है। साधना के क्रम में योग साधक चिरकाल से उपार्जित पापों को वैसे ही नष्ट कर देता है, जैसे इकट्ठी की हुई बहुत-सी लकड़ियों को अग्नि क्षण भर में भस्म कर देती है। योगसाधना के ही क्रम में अनेक चमत्कारिक शक्तियों का भी उदय होता है, जिन्हें लब्धियाँ कहते हैं। ये लब्धियाँ अलौकिक शक्तियों से सम्पन्न होती हैं, तथा सामान्य मानव को आश्चर्य में डालने वाली भी। वस्तुत: जिस साधक का अन्तिम उद्देश्य मोक्ष प्राप्ति ही होता है, वह भौतिक या चमत्कारिक लब्धियों के व्यामोह में नहीं फँसता / जैसे-जैसे योगी का मन निर्मल होता जाता है वैसे-वैसे उसमें समता, वैराग्य, सहनशीलता, परोपकार आदि सदभावनाएँ जाग्रत होती जाती हैं। लेकिन जो साधक रागद्वेषादि भावनाओं के वश होकर रौद्रध्यान दारा लब्धियाँ (शक्तियाँ) पाने की अभीप्सा रखते हैं वे आत्मसिद्धि के मार्ग से च्युत होकर संसार में भ्रमण करने लगते हैं। अत: लब्धियाँ मोक्षाभिमुख योगी के लिए बाधक ही सिद्ध होती हैं। इसलिए योगियों को आदेश है कि वे तप का अनुष्ठान किसी लाभ, यश, कीर्ति अथवा परलोक में इन्द्रादि देवों जैसे सुख अथवा अन्य ऋद्धियाँ प्राप्त करने की इच्छा से न करें। इस प्रकार योगसाधना का ध्येय शुद्ध आत्मतत्त्व की प्राप्ति करना है और लब्धियाँ उस योगमार्ग के बीच आई हुई फलसिद्धि हैं, जो आत्मतत्त्व की प्राप्ति करने में बाधक भी बन सकती हैं। योग साधना के दौरान प्राप्त होने वाली लब्धियों का वर्णन वैदिक, बौद्ध एवं जैनयोग में क्रमश: विभूति, अभिज्ञा तथा लब्धियों के रूप में मिलता है और कहा है कि लब्धियों का उपयोग लौकिक कार्यों में करना वांछित नहीं है। 1. ज्ञानार्णव 42/30-7. 2. अध्यात्मतरङ्गिणी, पृ. 62. 3. योगशास्त्र, 1/7. 4. दशवैकालिक सूत्र, 9/4. * 206
SR No.004283
Book TitleBhartiya Yog Parampara aur Gnanarnav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendra Jain
PublisherDigambar Jain Trishala Mahila Mandal
Publication Year2004
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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