________________ पृथक्त्ववितर्कवीचार नामक प्रथम शुक्ल ध्यान को प्राप्त योगी यदि उपशम श्रेणी पर आरूढ है तो वह चारित्रमोह का उपशम करता है और यदि क्षपक श्रेणी पर आरूढ है तो वह चारित्र मोह का क्षय करता है। इस ध्यान के पहले कर्म रूपी शत्रुओं का प्रसार- आस्रव होता रहता है, परन्तु इस ध्यान के होते ही उनका प्रसार रुक जाता है। उनका संवर होने लगता है और ग्यारहवें गुणस्थान में पहुँचते-पहुँचते एक सातावेदनीय को छोड़कर समस्त कर्म-प्रकृतियों का संवर हो जाता है। यह ध्यान अपने आपमें अत्यन्त निर्मल होता है और इतना निर्मल कि अन्तर्मुहूर्त के भीतर ही कर्मशिरोमणि मोहनीयकर्म को क्षीण अथवा उपशान्त करने में समर्थ होता है। ध्याता मुनि इस दूसरे शुक्लध्यान एकत्ववितर्क अवीचार से अग्नि की ज्वाला के समान दर्शन और ज्ञान के आवारक दर्शनावरण और ज्ञानावरण कर्म को अन्तराय कर्म के साथ क्षणमात्र में नष्ट कर देता है। उस दितीय शुक्लध्यान के प्रभाव से अर्हन्त भगवान् के क्षायिक ज्ञान, दर्शन, दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य, सम्यक्त्व और चारित्र ये नौ लब्धियाँ प्रकट हो जाती हैं। चौंतीस अतिशयों से युक्त और चारों दिशाओं में दिखने वाले चार मुखों से युक्त, परमौदारिक शरीर को प्राप्त अर्हन्त जगत् को आश्चर्यकारी वैभवयुक्त अष्ट प्रातिहार्यादि के स्वामी हो जाते हैं। इसके फलस्वरूप ही समस्त जीवों को आनन्द देने वाले, अन्य पदार्थों के आलम्बन से रहित आत्मसापेक्ष अनन्त सुख प्रकट होता है। यद्यपि अरहन्त भगवान् के वेदनीयादि चार कर्मों का उदय रूप अस्तित्व शेष रहता है, किन्तु उनके महादुःखदायी मोहनीयकर्म का क्षय हो चुकता है अत: वेदनीय कर्म विद्यमान होने पर भी अपना कार्य करने में समर्थ नहीं होता। एकत्ववितर्क अवीचार ध्यान से घातिकर्म का नाश करके, अपने आत्मलाभ को प्राप्त होता है और अत्यन्त उत्कृष्ट शुद्धता को पाकर, केवलज्ञान और केवलदर्शन को प्राप्त करता है। ___ आचार्य शुभचन्द्र के अनुसार समस्त शुक्लध्यानों के फलस्वरूप निम्न दशा प्राप्त होती है - 'इस शुक्लध्यान के प्रभाव से ज्ञानलक्ष्मी, तपोलक्ष्मी और देवों के द्वारा निर्मित की जाने वाली समवसरण आदिक लक्ष्मी तथा मोक्षलक्ष्मी को पाकर धर्म के चक्रवर्ती होते हैं। अन्तरंग बहिरंग लक्ष्मी से सहित केवली भगवान् जगत् से वन्दनीय और सब अभ्युदयों के सूचक ऐसे कल्याण रूप विभव को पाकर, तीनों लोकों के अधिपति होते हैं। जिन भगवान् के नाम लेने से ही भव्य जीवों के अनादिकाल से उत्पन्न हुए जन्ममरण जन्य समस्त रोग लघु हो जाते हैं। इन्द्र, चन्द्रमा, सूर्य, धरणेन्द्र, मनुष्य और देवों से नमस्कृत हुए है चरण जिनके, ऐसे केवली भगवान् शील अर्थात् चौरासी लाख उत्तरगुण और ऐश्वर्य सहित पृथ्वीतल में विहार करते हैं। 205