SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 241
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सप्तम अध्याय ध्यान महत्व एवं फल ध्यान-योग का महत्त्व - जैन दर्शन में ध्यान-योग का लक्ष्य मुख्यतया कर्म-निरोध और कर्मनिर्जरा है और इन दोनों के द्वारा अशेष कर्ममुक्ति प्राप्त करना है। यद्यपि योगी को अनेक ऋद्धियाँसिद्धियाँ भी उसके प्रभाव से उपलब्ध हो जाती हैं। पर वे उसकी दृष्टि में प्राप्य नहीं होती, मात्र आनुषंगिक ही होती हैं। उनसे उसको न कोई लगाव होता है और न उसके लिए ध्यान ही करता है। वे तथा अन्य स्वर्गादि अभ्युदय उसे उसी प्रकार मिलते हैं, जिस प्रकार चॉवलों के लिए खेती करने वाले किसान को भूसा अप्रार्थित मिल जाता है। किसान भूसा / को प्राप्त करने का लक्ष्य नहीं रखता और न उसके लिए प्रयास ही करता है। योगी भी ध्यान-योग का आराधन मात्र कर्म-निरोध और कर्म-निर्जरा के लिए करता है। यदि कोई योगी उन ऋद्धि-सिद्धियों में उलझता है, उनमें लुभाता है तो वह ध्यान-योग के वास्तविक लाभ से वंचित होता है। तत्त्वार्थसूत्रकार आचार्य उमास्वामी ने स्पष्ट शब्दों में तप से संवर और निर्जरा करने का निर्देश दिया है। इसी तरह आचार्य रामसेन भी अपने तत्त्वानुशासन में ध्यान को संवर और निर्जरा का कारण बतलाते हैं। इन दोनों से समस्त कर्मों का अभाव होता है और समस्त कर्माभाव ही मोक्ष है। इससे स्पष्ट है कि जैनदर्शन, में ध्यान-योग का आध्यात्मिक महत्त्व मुख्य है। सिद्धान्त चक्रवर्ती आचार्य नेमिचन्द्र ने अपने द्रव्यसंग्रह ग्रन्थ में लिखा है कि - 'मुक्ति का उपाय रत्नत्रय है और यह रत्नत्रय व्यवहार तथा निश्चय की अपेक्षा दो प्रकार का है। यह दोनों प्रकार का रत्नत्रय ध्यान से ही उपलभ्य है। अत: सम्पूर्ण प्रयत्न करके मुनि को निरन्तर ध्यान का अभ्यास करना चाहिए।'' तत्त्वार्थसारकार आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी की दृष्टि में भी ध्यान का आध्यात्मिक प्रयोग ही मुख्य है। यथा - 'यथार्थ में ध्यान में जब योगी अपने से भिन्न किसी दूसरे मन्त्रादि पदार्थ का अवलम्बन लेकर उसे ही अपने श्रद्धान, ज्ञान और आचरण का विषय बनाता है, तब वह व्यवहार मोक्षमार्गी होता है और जब केवल अपने आत्मा का अवलम्बन लेकर उसे ही श्रद्धा, ज्ञान और चर्या का विषय बनता है, तब वह निश्चयमोक्षमार्गी होता है। अत: मोक्ष प्राप्त करने वाले रत्नत्रय मार्ग पर आरूढ़ होने के लिए योगी को ध्यान बहुत आवश्यक और उपयोगी है।'5 1. तत्त्वार्थसूत्र, 9/3. 2. तत्त्वानुशासन, 56. 3. तत्त्वार्थसूत्र, 10/2. 4. द्रव्यसंग्रह, गाथा 47. 5. तत्त्वार्थसार, 1/4. 200
SR No.004283
Book TitleBhartiya Yog Parampara aur Gnanarnav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendra Jain
PublisherDigambar Jain Trishala Mahila Mandal
Publication Year2004
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy