________________ से की जा सकती है। इन तीनों के भी अवान्तर भेदों की प्ररूपणा जैन आगमों एवं योगसाहित्य में मिलती है। जिन्हें आवश्यकतानुसार वहाँ से ही देख लेना चाहिए। आचार्य शुभचन्द्र ने परमात्मा रूप ध्येय का विवेचन करने के पश्चात् आत्मद्रव्य रूप ध्येय का विवेचन करते हुए निर्देशित किया है - जिसने अपनी आत्मा का स्वरूप नहीं जाना वह परमात्मा के स्वरूप को नहीं जान सकता है। अत: परम पुरुष परमात्मा के ध्यान करने से पूर्व आत्मा के स्वरूप का निश्चय करना जरूरी है, क्योंकि आत्मा को जाने बिना शरीरादि से आत्मा को पृथक् करके जानना शक्य नहीं है और शरीरादि के भेदविज्ञान बिना आत्मलाभ सम्भव नहीं है। अत: मुमुक्षुओं को सबसे पहले समस्त परद्रव्यों की पर्याय या कल्पनाओं से रहित आत्मा का ही निश्चय करना चाहिए। योगी निर्विकल्प एवं अतीन्द्रिय आत्मा को पर-पदार्थों से पृथक् तथा उनमें आत्मबुद्धि का त्याग करता हुआ अविनश्वर परमात्मा का ध्यान करता है। भारतीय ध्यान-योग की नाना परम्पराओं के विशाल आकाश में पल्लवित व परिवर्द्धित होने वाली ध्यान की अनेक प्रक्रियाओं के मध्य भी उन सभी के महत्त्व एवं फल में एक अद्भुत समानता एवं उपादेयता समुपलब्ध होती है। इसमें भी आचार्य शुभचन्द्र दारा सुगठित एवं संयोजित विधि-विधान का महत्त्व एवं फल जात्य उपलब्धि है। इसमें जहाँ कर्मक्षय एवं मोक्षोपलब्धि जैसी परम्परित मान्यताएँ सुरक्षित हैं, वहीं मानसिक अवसाद का उपशमन एवं अन्य तनावों का शैथिल्य जैसे नव आकर्षण मौजूद हैं। इसी के कारण उनकी रचना ज्ञानार्णव किसी भी साधक के लिए मार्गदर्शन करने के लिए समुचित और प्रतिष्ठामय स्थान दिलाने में समर्थ है। 199