________________ अभ्यास मार्ग है, बारह अनुप्रेक्षाओं से चित्त में वीतराग अनुभूति की प्रीति एवं गहराई और व्यापकता बढ़ती है और इन्हें बढ़ाना चाहिए। ये अनुप्रेक्षाएँ चिन्तन तथा आत्म भावना के विकास तथा परिष्कार रूप हैं और प्रेक्षा तो मात्र दर्शन और अनुभव रूप ही है। चिन्तन, धारणा या भावना सबसे अतीत निष्कर्ष रूप तथा कर्म-निर्जरात्मक रूप है, अबंध रूप है, सरल, सुगम और शीघ्रता का असाम्प्रदायिक श्रमण अध्यात्म मार्ग है।' . अध्यात्म की अपेक्षा से जैन दार्शनिकों ने आत्मा के निम्नांकित तीन भेद किये हैं - 1. बहिरात्मा, 2. अन्तरात्मा और 3. परमात्मा। 1. बहिरात्मा - प्रथम अवस्था में आत्मा का यथार्थ स्वरूप कर्म आवरणों से पूर्णत: आच्छादित रहता है। अत: उसका ज्ञान भी मिथ्यात्व युक्त होता है। मिथ्यात्वकर्म का उदय होने से आत्मस्वरूपसे अनभिज्ञ जीव शरीरादि को ही आत्मा समझता है। हेय, उपादेय या हिताहित का विवेक न होने के कारण वह विषय भोगों में ही आसक्त रहता है। उक्त अवस्था में विद्यमान जीव को बहिरात्मा की कोटि में परिगणित किया जाता है। 2. अन्तरात्मा - द्वितीय अवस्था से मिथ्यात्व के नष्ट हो जाने से सम्यग्दर्शन का आविर्भाव हो जाता है और आत्मा को स्व-पर का विवेक अर्थात् भेद ज्ञान की प्रतीति होने लगती है। जैन मतानुसार जिस अवस्था में शरीर को आत्मा न मानने की प्रवृत्ति उत्पन्न हो जाए और शरीर व आत्मा में भेद प्रतीत होने लगे, उसे अन्तरात्मा कहा जाता है। आचार्य कुन्दकुन्द ने इसे परमात्म-अवस्था को प्राप्त करने का उपादेय साधन माना है। आचार्य शुभचन्द्र एवं उपाध्याय यशोविजय प्रभृति जैन विद्धान् भी अन्तरात्मा को साधकावस्था समझते हैं, क्योंकि इस अवस्था में जीव शुभाशय से धार्मिक क्रियाओं का आचरण करते हुए आध्यात्मिक उन्नति की ओर अग्रसर होता है।' 3. परमात्मा - संसारी जीवों में आत्मा की सबसे उत्कृष्ट स्थिति 'परमात्मा' कही जाती है। कर्मावरणों से निर्लिप्त संकल्प-विकल्पादि उपाधियों से रहित शुद्ध, आनन्दमय एवं अनन्तगुणों से युक्त आत्मा को परमात्मा नाम से अभिहित किया जाता है। बहिरात्मा और अन्तरात्मा दोनों का क्रमश: त्याग करने से परमात्मा का स्वरूप प्रतिभासित होता है। उक्त अवस्था की तुलना पातंजलयोगसूत्र में वर्णित कैवल्यावस्था 1. अष्टांगयोग अभ्यास रत्नदीपिका, पृ. 135-6. 2. मोक्षपाहुड, 5,8. समाधिशतक, 4. ज्ञानार्णव, 32/5. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 192. आदि 3. मोक्षपाहुड, गाथा 9. व परमात्मप्रकाश 1/13. 4. नियमसार, गाथा 150. 5. मोक्षपाहुड, गाथा 5-8. 6. अध्यात्मसार, 7/20-3. 7. समाधितन्त्र, टीका, श्लोक 6 पृ. 225. 8. भावसंग्रह, 272-3. 9. ज्ञानार्णव, 26/24. . 198