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________________ मनोरोध का फल - इस जगत् में जो मुनि प्रशम, यम, समाधि, ध्यान विज्ञान . अर्थात् भेदज्ञानं के लिए तथा विनय व नय के स्वरूप की प्राप्ति के लिए, विवेक और उदार चारित्र की शुद्धि के लिए चित्तरूपी दुर्निवार सर्प को जीतते हैं वे योगियों के समूह दारा वन्दनीय हैं, और मुनियों में इन्द्र हैं।' जब मन को अन्य विकल्प व विकारों से रहित करके आत्मस्वरूप में स्थिर करें तभी मोक्ष की प्राप्ति होती है।2। रागद्वेष का निरोध - प्रिय विषयों के प्रति प्रीति का होना राग कहलाता है। और अप्रिय विषयों में अप्रीति भाव रखना देष कहलाता है। राग और देष मोहस्वरूप ममकार और अहंकार से होता है। अर्थात् ममकार और अहंकार भाव से राग भी होता है और द्वेष भी। जब किसी एक विषय के प्रति राग होता है तो दूसरे के प्रति देष अवश्य उत्पन्न हो जाता है। अत: राग-द्वेष एक दूसरे के अविनाभावी है अर्थात् एक के होने पर दूसरे का होना आवश्यक है। ये रागादिक भाव मनुष्य को कभी तो मूढ करते हैं, कभी भ्रम रूप करते हैं, कभी भयभीत करते हैं, कभी आसक्त करते हैं, कभी शंकित करते हैं, कभी क्लेश रूप करते हैं, इत्यादि प्रकार से स्थिरता से डिगा देते हैं।' रागद्वेष निरोध के उपाय - मोह के कारण ही रागद्वेष होते हैं इसलिए मोह को नष्ट करने का प्रयत्न करना चाहिए। आचार्य कुन्दकुन्द ने मोह-राग-द्वेष निरोध के निम्नांकित उपाय बताए हैं - __ 1. द्रव्य, गुण और पर्याय के द्वारा अरहंत भगवान् के स्वरूप को जानकर अपनी आत्मा के शुद्ध स्वरूप को भी उसी प्रकार जानने से मोह नष्ट हो जाता है। 2. सर्वज्ञ उपदिष्ट जैनशास्त्रों का अध्ययन कर तत्त्वों का यथार्थ स्वरूप जानने से भी मोह नष्ट हो जाता है। हे आत्मन् ! अपने मन को संक्लेश, भ्रांति और रागादिक विकारों से रहित करके अपने मन को वशीभूत कर तथा वस्तु के यथार्थ स्वरूप का अवलोकन कर।1० 1. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 489. 3. ज्ञानार्णव, 22/33. 5. वही, गाथा 85. 7. ज्ञानार्णव, 23/25. 9. प्रवचनसार, 1/80. 2. ज्ञानार्णव, 22/35. 4. प्रवचनसार, त. प्र. टीका, गाथा 85. 6. तत्त्वानुशासन, 13. 8. वहीं, 22/7. 10. प्रवचनसार, 1/86. 190
SR No.004283
Book TitleBhartiya Yog Parampara aur Gnanarnav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendra Jain
PublisherDigambar Jain Trishala Mahila Mandal
Publication Year2004
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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