________________ सकती। अत: ध्यान के इच्छुक पुरुषों को कषायों और इन्द्रियों को जीतने का पुरुषार्थ करना चाहिए। मनोविजय अथवा मनोरोध - मुमुक्षु साधक का साधना करने का परम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति है। इसकी प्राप्ति ध्यान के द्वारा होती है और ध्यान की सफलता मन के व्यापार के निरोध होने पर ही निर्भर है। यदि मन का व्यापार नहीं रुका तो ध्यान की साधना असफल हो जाएगी। मनोरोध होने पर ही इन्द्रियों की प्रवृत्ति का निरोध हो सकता है। तत्त्वानुशासन आदि में कहा है कि - 'इन्द्रियों की प्रवृत्ति और निवृत्ति में मन ही प्रमुख होता है। अत: मन के जीतने पर ही साधक जितेन्द्रिय कहलाने के योग्य होता है।'' जिसने मन का रोध किया उसने सब ही रोका अर्थात् जिसने अपने मन को वश में नहीं किया, उसका अन्य इन्द्रियादिक का रोकना भी व्यर्थ है। आचार्य शुभचन्द्र कहते हैं कि - 'हे भव्य आत्मन् ! यदि तू कर्मरूपी दृढ़ बेड़ियों को काटने के लिए उद्यमी हआ है तो उस मन को ही समस्त विकल्पों से रोककर शीघ्र ही अपने वश में कर।'2 मुनि के जैसे-जैसे मन की शुद्धता- साक्षात् होती जाती है, वैसे-वैसे विवेक अर्थात् . भेदज्ञान रूप लक्ष्मी अपने हृदय में स्थिर पद को धारण करती है। अर्थात् मन की शुद्धता से उत्तरोत्तर विवेकं बढ़ता है। इस मनोरोध करने से संसारी जीवों के ज्ञानावरण और संसार भ्रमण से उत्पन्न दोष नष्ट हो जाते हैं। मन के जीत लेने पर सभी अर्थों की सिद्धि और अभ्युदय की प्राप्ति होती है। इसके जीते बिना व्रत, नियम, तप, शास्त्राध्ययन, ज्ञान और कायक्लेश आदि निरर्थक हैं। मनोरोध के उपाय - नागसेन आचार्य ने तत्त्वानुशासन में मन के व्यापार को रोकने के दो उपाय बतलाए हैं - अनुप्रेक्षाओं का चिन्तन और स्वाध्याय में नित्य उद्यमी होना। आचार्य हेमचन्द्र ने उदासीन भाव को मन को रोकने का उपाय बतलाया है। वे कहते हैं कि - 'मन की जिस विषय में प्रवृत्ति हो उसे उससे नहीं रोकना चाहिए। यदि उसे बलपूर्वक मोड़ा जाएगा तो मदोन्मत्त हाथी की तरह उन्मत्त होकर उसकी ओर ही प्रवृत्ति होगी और उसे नहीं रोकने से विषयों को प्राप्त कर शान्त हो जावेगा।'' स्वामी कार्तिकेय ने मन निरोध का उपाय अनुप्रेक्षाओं का चिन्तन बतलाया है। 1. तत्त्वानुशासन, 76. 3. ज्ञानार्णव, 22/18. 5. तत्त्वानुशासन, 79. 2. ज्ञानार्णव, 22/9. 4. वही, 20/20. 6. योगशास्त्र, 12/27-8. 189