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________________ साधक हर पहलू से अपने आपको परखता है, जो आवश्यक है। जब वह स्वत्व को केन्द्र मानकर परीक्षण करता है, तो सबसे पहले उसके मन में यही भाव उदित होता है कि. मैं अकेला हूँ, मेरा कोई नहीं है।' यह चिन्तन आत्मस्वरूप प्रत्यायक है, जो साधक को प्रेरित करता है कि वह सबसे पहले सबसे अधिक स्व की, अपने आपकी चिन्ता करे। जिसे जगत् में प्राय: गौण माना जाता है। इन बारह भावनाओं से जिसका मन निरन्तर भावित रहता है, वह सभी भावों पर ममता रहित होकर समभाव का अवलम्बन लेता है।' जब जीव समताभाव से युक्त हो जाता है, तब जीव के समस्त कषाय नष्ट हो जाती हैं। कषाय रूपी अग्नि के विलीन हो जाने से ज्ञान रूपी दीपक विकसित हो जाता है अत: जीव को निराकुल, अविनश्वर, अतीन्द्रिय सुख प्रदान करने वाली इन भावनाओं का चिन्तन अवश्य करना चाहिए। जैन परम्परा में वर्णित दादश अनुप्रेक्षाओं/भावनाओं के समकक्ष पातञ्जलयोगसूत्र में यम-नियम की प्रतिपक्षी विघ्न (विरोधी) भावनाओं का अवलम्बन लेने की चर्चा मिलती है। विशेषता इतनी है कि पतञ्जलि ने भावनाओं के नाम व संख्या आदि का निरूपण नहीं किया, जबकि जैनयोग-साधना में इन्हें विशिष्ट स्थान प्रदान किया गया है। जैन परम्परा के सदृश पातञ्जला योगदर्शन में भी भावना और जीव का घनिष्ट सम्बन्ध दर्शाया गया है। उसके अनुसार भावनाओं का चिन्तन करने से आत्मशुद्धि होती है, चित्त प्रसन्न रहता है। चित्त के स्थिर रहने से बुद्धि स्थिर रहती है और चित्त की एकाग्रता बनी रहती है। इसलिए वहाँ ईश्वर का बार-बार जप करने का विधान प्रस्तुत किया गया है। वहाँ कहा गया है कि - 'जप के पश्चात् ईश्वर की भावना करनी चाहिए और ईश्वर भावना के पश्चात् पुन: जप, इस प्रकार बार-बार आवृत्ति करते रहने से परमात्मा का साक्षात्कार होता है। इन्द्रियनिग्रह - भारतीय दर्शन के निवृत्ति मार्ग में इन्द्रियों को वश में करने का महत्त्वपूर्ण स्थान है। क्योंकि इन्द्रियनिग्रह के बिना ध्यान की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। इन्द्रियविजय के उपायों का वर्णन करते हुए आचार्य शुभचन्द्र ने ज्ञानार्णव में लिखा है - 'हे धीर-वीर पुरुष ! स्वतन्त्रता से विकार को करने वाली इन दुर्दम इन्द्रिय रूपी हस्तियों को शीलरूपी शाल के वृक्ष में विज्ञान रूपी रस्से से दृढ़ता से बाँध / क्योंकि 1. योगशास्त्र, 4/100. 2. ज्ञानार्णव, 2/192. योगशास्त्र, 4/11. 3. वही, 2/191. 4. पातञ्जलयोगसूत्र, 2/33. 5. व्यासभाष्य, पृ. 113. 6. वही, पृ. 95-6. 7. वही, पृ. 95-6. 186
SR No.004283
Book TitleBhartiya Yog Parampara aur Gnanarnav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendra Jain
PublisherDigambar Jain Trishala Mahila Mandal
Publication Year2004
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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