________________ विशुद्धात्मापूर्वक नित्य संवर का चिन्तन करने से जीव में संवर के प्रति निरन्तर उद्यतता तथा संवर के कारणों में आस्था बनी रहने से मोक्ष फल की प्राप्ति होती है।' 9. निर्जरा भावना - जिससे संसार के कारण रूप कर्म नष्ट हो जाते हैं, उसे निर्जरा कहा जाता है / संयमी जैसे-जैसे तप करता जाता है, वैसे-वैसे कर्म निर्जरा होती जाती है, कर्म निर्जीर्ण होते जाते हैं, पूर्वसंचित कर्म कटते जाते हैं। नवीनकर्मों का बन्ध नहीं होता, तब मोक्ष की उपलब्धि होती है। इस प्रकार निर्जरानुप्रेक्षा द्वारा निर्जरा के गुण दोषों का विचार किया जाता है। ऐसा विचार करने से जीव की प्रवृत्ति तपश्चर्या की ओर होती है। - 10. धर्म भावना - इस भावना में धर्म के स्वरूप तथा महत्त्व का प्रतिपादन होता है। समस्त सुख धर्म से ही उपलब्ध होते हैं। धर्म हमेशा परिरक्षण करता है, अनिष्ट से बचाता है, उससे दूर रखता है तथा शाश्वत मोक्षसुख की प्राप्ति कराता है। विहित धर्मों के पालन से ही कर्मों की निर्जरा होती है। इसी से दया, क्षमा आदि धर्मों का उदय होता है। इन्हीं धर्मों का चिन्तन करना धर्मानुप्रेक्षा है। इस प्रकार चिन्तन करने से जीव का धर्म में अनुराग बढ़ता है। 11. लोक भावना - जहाँ जीवादि द्रव्य रहते हैं उसे लोकाकाश कहते हैं। लोक स्वयं स्थित तथा आदि-अन्त से रहित है। लोक के नीचे का भाग बेंत के समान, मध्य का झालर जैसा एवं ऊपर का भाग मृदंग समान है। इस लोक में प्राणी कर्मों के कारण जन्ममरण करता रहता है। लोक भावना में लोक के स्वरूप का चिन्तन किया जाता है। इस भावना के चिन्तन से तत्त्वज्ञान में विशुद्धि होती है। 12. बोधिदुर्लभ भावना - सम्यग्दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र रूपरत्नत्रय को बोधि कहा जाता है। बोधि की प्राप्ति बहुत दुर्लभ है। पहले तो प्राणी का नरक, निगोद और तिर्यश्च से निकलकर मनुष्य जीवन में आना ही कठिन है। मनुष्य बनने के बाद भी पूर्णायु, सर्व इन्द्रियों की परिपूर्णता व उत्तम बुद्धि मिलना कठिन है। इन सबके मिलने पर भी आत्म स्वरूप का निश्चय होना बहुत कठिन है। ऐसा चिन्तन इस भावना में किया जाता है। इससे जीव बोधि को प्राप्त करने में कभी भी प्रमाद नहीं करता है।1० उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि जीवन की वास्तविकता को समझने के लिए 1.सर्वार्थसिद्धि, 9/7. 3. मूलाचार, 8/59. 5. योगशास्त्र, 4/92-3. 7. ज्ञानार्णव, 2/171-7. 9. ज्ञानार्णव, 2/178-190. 2. ज्ञानार्णव, 2/140-8. 4. ज्ञानार्णव, 2/149-170. 6. सर्वार्थसिद्धि, 9/7. 8. मूलाचार, 8/30-6. 10. सर्वार्थसिद्धि, 9/7, पृ. 319. .. 185