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________________ दादश भावनाओं का स्वरूप - 1. अनित्य भावना - तीनों लोकों में विद्यमान चेतन व अचेतन पदार्थ अनित्य हैं। इस भावना में इस बात पर बल दिया है कि सांसारिक वैभव विनश्वर है। यह शरीर, इन्द्रिय-विषय तथा भोगोपभोग के जितने भी साधन हैं वे सब जल के बुदबुदे के समान क्षणिक और वियुक्त होने वाले हैं। जैसे रात्रि में पक्षी विभिन्न स्थानों से आकर किसी वृक्ष पर बसेरा लेते हैं और प्रात:काल होते ही यथास्थान चले जाते हैं। वैसे ही आयु के क्षीण होने पर सब सांसारिक वैभव यहीं छोड़ अपने-अपने कर्मों के अनुसार विभिन्न योनियों में उत्पन्न होना पड़ता है। जगत् की इस अनित्य अवस्था का चिन्तन करना ही अनित्य भावना है। इसके भाने से भव्यों के शरीरादिक में आसक्ति का अभाव होने से भोगकर छूटे हुए गन्ध और माला आदि के समान वियोग काल में भी सन्ताप नहीं होता।' 2. अशरण भावना - इस भावना में यह चिन्तन किया गया है कि मृत्यु के उपस्थित होने पर कोई शरण नहीं है। जैसे सिंह के पंजे से हिरण को कोई बचा नहीं सकता। यमराज पाताल, ब्रह्मलोक, इन्द्रभवन, समुद्रतट, वन-पर्वत आदि सभी स्थानों पर पहुँच जाता है तथा प्राणी को ग्रसित कर लेता है। इस अनुप्रेक्षा के चिन्तन से संसार के प्रति ममत्व भाव दूर होकर एकमात्र धर्म की शरण के प्रति अपूर्व आस्था उत्पन्न होती है। 3. संसार भावना - चतुर्गति रूप संसार में कहीं भी सुख नहीं है। यह आत्मा अनेकानेक योनियों में सभी जीवों के साथ सभी तरह के सम्बन्ध स्थापित कर चुका है। जन्म-मरण करता रहता है, यही संसार है। इस भावना के चिन्तन से यह जीव संसार से भयभीत होकर उसके नाश की ओर प्रयत्नशील रहता है। 4. एकत्व भावना - संयोग-वियोग, सुख-दु:ख के समय इस जीवात्मा का कोई भी मित्र नहीं हो सकता। आत्मा अकेला आया और अकेला ही जाएगा मैं स्वयं ही अपने अच्छे-बुरे कर्मों का फल पाता हूँ। इस तरह एकत्व का चिन्तन करना एकत्वानुप्रेक्षा है। इस भावना के चिन्तन से कामभोग में, शिष्यादि के समूह या संघ में, शरीर अथवा सुख में आसक्ति नहीं होती अपितु वैराग्य से मन को रमाये हुए सर्वोत्कृष्ट चारित्र धर्म को धारण किये रहता है।' 5. अन्यत्व भावना - इसमें चिन्तनक्रम यों बनता है कि आत्मा शरीर से भिन्न है, किन्तु अज्ञान के कारण सांसारिक प्राणी इस तथ्य को सरलतया समझ नहीं पाते। 1. सर्वार्थसिद्धि, 9/7., कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 22 आदि 3. भगवती आराधना, गाथा 1746. 5. सर्वार्थसिद्धि, 9/7. पृ. 317 7. भगवती आराधना, गाथा 202. 2.ज्ञानार्णव, 2/48-66. 4. ज्ञानार्णव, 2/67-83. 6. ज्ञानार्णव, 2/84-93. 183
SR No.004283
Book TitleBhartiya Yog Parampara aur Gnanarnav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendra Jain
PublisherDigambar Jain Trishala Mahila Mandal
Publication Year2004
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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