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________________ उपायों में जो सूत्र प्रदर्शित किये गए हैं, उनमें कतिपय निम्न हैं - 'हे आत्मन् ! तेरे जिसजिस पदार्थ में क्रोधादिक शत्रु उत्पन्न होते हैं वही-वही वस्तु उन क्रोधादि की शान्ति के लिए त्याग देनी चाहिए। आचार्य शुभचन्द्र के समान ही ध्यान के मर्मज्ञ अन्य जैनाचार्यों ने भी इस सन्दर्भ में कहा है कि - 'क्रोध, मान, माया, लोभ इन चार कषायों को क्रमश: क्षमा, मार्दव, आर्जव और लाघव से जीता जा सकता है।' परमात्मप्रकाश में कषायों के निग्रह का उपाय सिद्ध परमेष्ठी का मन में ध्यान करना' बतलाया गया है।' योग के प्रख्यात आचार्य हेमचन्द्रसूरि की दृष्टि से अन्तत: स्वयं के ही ध्यान का सुझाव दिया गया है और उससे कषायों के निग्रह की भी बात स्पष्ट की गई है। यथा - 'आत्मस्वरूप के चिन्तन से भी कषायों का शमन हो जाता है। जो निर्मल आत्मा का आत्मा के द्वारा ध्यान करता है, वह कषायों का जय करता है। इस प्रकार कषायों के जय करने का लगभग सभी परम्पराओं में कथन किया गया है। दादशानुप्रेक्षा - जाने हुए अर्थ का मन में अभ्यास करना अथवा वैराग्य की वृद्धि के लिए शरीरादि के स्वभाव का पुन:-पुन: चिन्तन करना अनुप्रेक्षा है। अनुप्रेक्षा का सामान्य अर्थ गहनचिन्तन करना भी है, जिसका अपरनाम 'भावना' है। इसलिए बारह भावना के रूप में प्रसिद्ध वैराग्यवर्धक चिन्तनविशेष ही व्दादशानुप्रेक्षा है। आचार्य शुभचन्द्र एवं हेमचन्द्र के मतानुसार समत्व के उपायभूत निर्ममत्व को जाग्रत करने के लिए भावशुद्धि होनी आवश्यक है। अत: आत्म-परिणामों को विशुद्ध रखने के लिए वीतराग प्ररूपित भावनाओं का चिन्तन करना चाहिए।' जिंस प्रकार महावत उपद्रव से रक्षा करने के लिए बलवान् हाथी को आलानस्तम्भ (हाथी को बाँधने काखम्भा) से बांध कर रखता है। उसी प्रकार मुनिजन विषयों आदि से मन का संरक्षण करने तथा धर्मानुराग की वृद्धि हेतु भावनाओं को मन में बाँधकर रखते हैं। अर्थात् मन से निरन्तर उनका चिन्तन करते हैं। आचार्य शुभचन्द्र ने अनित्यादि बारह भावनाओं को मोक्ष रूपी प्रासाद की सोपान पंक्ति के समान मानते हुए इनकी प्रशंसा की है। 1. वही, 19/73. 2. भगवती आराधना, गाथा 260. 3. परमात्मप्रकाश, गाथा 2/184. 4. योगशास्त्र, 5/7. 5. सर्वार्थसिद्धि, पृ.339. 6. मूलाचार 8/73. 7. ज्ञानार्णव, 2/4,5. योगशास्त्र, 4/55. 8. ज्ञानार्णव, 2/6. 9. वही, 2/7. 182
SR No.004283
Book TitleBhartiya Yog Parampara aur Gnanarnav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendra Jain
PublisherDigambar Jain Trishala Mahila Mandal
Publication Year2004
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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