________________ जीवों के चिरकाल से अभ्यास किये हुए शम भाव और शस्त्र चलाने का अभ्यास काम पड़ने पर व्यर्थ हो जाए तो उस शमभाव व शस्त्रविद्या सिखाने से क्या फल है। यदि मुनियों को कोई दुष्ट दुर्वचनादि उपसर्ग करे तो वह इस प्रकार विचार करते हैं - 'कि यदि वह दुर्वचनादि कहने वाला मुझे पापों से भय उत्पन्न नहीं करे तो मैं शान्त भाव के लिए अधिक प्रयत्न नहीं करूँ, इस कारण इसने मुझे सावधान किया है कि मैंने पूर्वकाल में जो क्रोधादि पाप किये थे उनका यह उपसर्ग फल है, अत: मुझे यह बड़ा भारी लाभ हआ। इस प्रकार के विचार में आरूढ़ होकरसाधक निश्चल रहते हैं। इत्यादि प्रशस्त भावनाओं के विचार दारा साधक क्रोधादि कषायों को जीतता है। उपसर्गादिक क्रोध के निमित्त मिलने पर जो मुनिराज क्रोध नहीं करते, किन्तु क्षमा ही धारण करते हैं, उनके अनेक विध प्रशस्त ध्यान होता है।'' जहाँ क्रोध कषाय से परिणामों में प्रकट, शीघ्र एवं चिरकालीन प्रदूषण पैदा होता है, वहीं मान कषाय के द्वारा भी चित्त की स्थिरता भंग की जाती है। इसलिए ग्रन्थकार ने इसकी भी हेयता दिखलाते हुए लिखा है - ___'मान से मनुष्यों के विवेक रुप निर्मल नेत्र से भेदविज्ञानमय दृष्टि लुप्त हो जाती है, वे शील रूपी पर्वत के शिखर से पतित हो जाते हैं। अभिप्राय यह है कि मानी पुरुष पर्वत में शील तथा विवेक टिका नहीं रहता है। 2 _ 'मानी पुरुष गर्व से विनयाचार का उल्लंघन करता है और पूज्य गुरुओं की परिपाटी को छोड़कर स्वेच्छाचार से प्रवर्तने लग जाता है। जिनकी बुद्धि कुल, जाति और प्रभुता आदि के मद के मोह से नष्ट हो चुकी है वे शीघ्र ही नीचगति के कारणभूत कर्मों का संचय करते हैं।' - इसी तरह माया एवं लोभ कषाय के भी निग्रह करने का कुशलतापूर्वक विवेचन किया गया है। लोभ कषाय के दोषों का वर्णन करते हुए जो लिखा है, उसका संवरण कर पाना शक्य नहीं - 'लोभ बड़ा अनर्थकारी है। उसके वश हुआ मनुष्य अपने स्वामी, गुरु, बन्धु वृद्ध, स्त्री, बालक, रोग, आदि से जीर्ण दुर्बल, दीन आदि की निशंक होकर हत्या कर डालता है और उनका धन अपने अधिकार में कर लेता है।' कषायनिग्रह के उपाय - आचार्य शुभचन्द्र की दृष्टि से कषायों के निग्रह के 1. ज्ञानार्णव, 19/31. 2. वही, 19/51. 3. वही, 19/52. 4. ज्ञानार्णव 19/70. 181