________________ ___जो देव गुरु का भक्त है तथा साधर्मी मुनियों में अनुरागयुक्त होता है और सम्यक्त्व, को धारण करता है वह योगी ध्यान में रत होता है। आहार, आसन, निद्रा इनको जीतकर और जिनवर के मत से तथा गुरु के प्रसाद से जानकर निज आत्मा का ध्यान करना चाहिए। आत्मा चारित्रवान् और दर्शन-ज्ञान सहित है ऐसा आत्मा गुरु के प्रसाद से जानकर नित्य ध्यान करना चाहिए। जब तक मनुष्य इन्द्रियों के विषयों में प्रवर्तता है तब तक आत्मा को नहीं जानता इसलिए योगी ध्यानी मुनि विषयों से विरक्त चित्त होता हुआ आत्मा को जानता है।' ध्यान की अन्तरंग प्रक्रिया - ध्यान के कारणभूत कषायनिग्रह, इन्द्रियविजय, मनोविजय, साम्यभाव का आलम्बन. रागढेष का निरोध, वैराग्य की कारणभूत अनप्रेक्षाओं का चिन्तन ये सब ध्यान की आन्तरिक प्रक्रिया में सम्मिलित हैं। कषायनिग्रह -कषायनिन्दा प्रकरण में आचार्य शुभचन्द्र ने पूरे बारह श्लोकों में कषाय से होने वाली हानियों को दर्शाया है। वहाँ लिखा है कि - 'क्रोध रूपी अग्नि प्रकट होने पर सम्यग्दर्शन आदि आत्मिक गुणों को जला देती है। क्रोध के कारण मुनिजन भी दुर्गति के पात्र होते हैं, अन्य साधारण जन के विषय में क्या कहा जाय। शान्त भाव का अवलम्बन कर जिनागम का अवगाहन करना ही क्रोध कषाय को जीतने का एक मात्र उपाय है। आगे क्रोध कषाय को जीतने के लिए कुछ भाने योग्य भावनाओं का विवेचन किया गया है। उनमें कुछ मुख्य हैं - तत्त्वज्ञानी मुनि ऐसा विचारकर क्रोधादि रूप परिणमन नहीं करते कि यदि क्रोधादि से मेरा भी मन बिगड़ जाएगा, तो फिर अज्ञानी तथा मुझ तत्त्वज्ञानी में विशेष भेद ही क्या रहा, मैं भी अज्ञानियों के समान हुआ। प्रतिकूल कारण उपस्थित होने पर ज्ञानी विचार करता है, कि हे आत्मन् ! तूने पूर्व जन्म में जो असाता कर्म बाँधा था, उसी का फल यह दुर्वचनादिक रूप है। अत: इनको उपायरहित समझाकर आगामी दुःख की शान्ति के लिए स्वस्थचित्त से सहनकर।' प्रशम भाव की मर्यादा का उल्लंघन न करने का उपदेश देते हुए कहा है - 'मैं प्रशम भाव की मर्यादा का उल्लंघन करके वध-बन्धनादि करने वाले शत्रु पर क्रोध करूँगा तो इस ज्ञान रूप नेत्र का उपयोग कौन-से काल में होगा।' 1. मोक्षपाहुड, गाथा 52, 63-6. 3. वही, 19/18, 22. 2. ज्ञानार्णव, 19/1-2, 7. 4. वही, 19/28. 180